एक कहानी बहुत पुरानी है। किसी जंगल में एक शेर रहता था, प्रजातऩ्त्र की हवा बही तो लोकलुभावन वादों और कर्णप्रिय नारों के बदौलत चुनाव जीतकर फिर राजा बन गया। अब शेर है, तो घास तो खायेगा नही, उसे राजनीति आती थी अतः शिकार सुनियोजित तरीके से छिप छिपा के सुनसान इलाके में करता था। प्रत्यक्षरूप से अहिंसावादी आचरण प्रदर्शित करता था। इसलिए जंगली जीव अगल बगल बैठने लगे थे। एक रात जनहित में शेर ने एक भोले भाले हाथी का जमके डीनर किया। मामला कुछ गरीष्ठ हो गया। सुबह एक लम्बी डकार ली तो थोडी दूरी पर बैठा ऊंट नाक सिकोड कर बोल पडा- बडी दुर्गन्ध आरही है क्या खा लिया है। इतना सुनते ही शेर आग बबुला हो गया और उसकी हत्या कर दी और उसका भी थोडा सा ब्रेकफास्ट किया। कुछ देर बाद बाईं तरफ मुह कर के फिर डकारा, इस बार सामने बैल दिख गया तो उससे पूछ बैठा ,क्यों बे तुझे भी दुर्गन्ध आ रही है। बैल ऊंट के सत्य बोलने का परिणाम देख चुका था। अतः बैल ने कहा- नही हुजुर, मुझे तो केशर इलाइची मिश्रित सुगन्ध आ रही है। शेर क्रोधित होगया साले राजा से झूठ बोलरहा है। मेरे बाप दादे ने कभी इलाइची नही खायी और तुझे सुगन्ध आ रही है।
फिर शेर ने बैल का प्रयोग लन्च के लिए किया। अब तो बेचारे की पेट की स्थिति एकदम से गडमड हो गयी। अबकी दुर्गन्धयुक्त डकार निकला तो सामने एक सियार दिख गया। यह वही सियार था जो चुनाव के समय अपनी पुरी जाति बिरादरी के साथ प्रचार में हुआं हुआं करता रहा था। शेर द्वारा छोडा गया शेष यही चट करता था। इसे फ्री की खाने की आदत पड गयी थी। शेर ने सियार के तरफ प्रश्नवाचक नजरों से निहारा। सियार बोला- माई बाप अब क्या बताउं मुझे कई महिनो से जुकाम है मुझे तो सुगन्ध या दुर्गन्ध का कुछ भी पता नही चलता। बस अखिल भारतीय जनता को भी आजादी के बाद से जुकाम हो गया है। इसे सुगन्ध या दुर्गन्ध का पता नही चलता। फ्री के चक्कर में चापलुसी की आदत पड गयी है।
पिछले दिनों आम आदमी पर्टी में जो कुछ हुआ वह राजनीति की दृष्टि में बहुत ज्यादा अप्रत्यासित नही है, पार्टी कोई भी हो अन्ततोगत्वा सत्ता प्राप्ति के बाद उन्ही सन्साधनों को अपनाती है जो प्रजातान्तरिक चेहरे को लहुलुहान करते रहे है। कुर्सी का चरित्र है जिसके कन्धे पर चढकर पद मिले सबसे पहले उनके पैर काटो ताकी भविष्य में उनके पैरों के निशान तक न मिले। कुर्सी चापलुसों से घिरी रहना चाहती है। कुछ का मानना है जनता का आंकलन गलत हो गया, कुछ अपरिपक्वता मान रहे है। लेकिन ये सब आधा सच है,
सत्य तो यह है कि हम स्वार्थ एवं विलासिता से युक्त सम्वेदना रहित समाज का निर्माण करने में व्यस्त है। बच्चों पर बस्तों के बोझ के साथ, पैकेज के दबाव और हृदय हीनता भी लाद रहे है। गुगल के जंगल में युवा वर्ग भटक गया है। बुढापा उपेक्षित हो गया है। कहां से आयेगा आर्दश नायक, विश्वसनीय नेता,। राजनीति के सभी मार्ग तो समाज से ही होकर गुजरते है। हमें स्वार्थी जुकाम से निजात पाना होगा, पवित्र राजनीति की चाह को त्याग कर समाजिक मुल्यो के निर्माण पर बल देना होगा। हमें स्वतः गांधी और बुद्ध के न्यूनतम संस्करण मिल जायेंगे।
फिर शेर ने बैल का प्रयोग लन्च के लिए किया। अब तो बेचारे की पेट की स्थिति एकदम से गडमड हो गयी। अबकी दुर्गन्धयुक्त डकार निकला तो सामने एक सियार दिख गया। यह वही सियार था जो चुनाव के समय अपनी पुरी जाति बिरादरी के साथ प्रचार में हुआं हुआं करता रहा था। शेर द्वारा छोडा गया शेष यही चट करता था। इसे फ्री की खाने की आदत पड गयी थी। शेर ने सियार के तरफ प्रश्नवाचक नजरों से निहारा। सियार बोला- माई बाप अब क्या बताउं मुझे कई महिनो से जुकाम है मुझे तो सुगन्ध या दुर्गन्ध का कुछ भी पता नही चलता। बस अखिल भारतीय जनता को भी आजादी के बाद से जुकाम हो गया है। इसे सुगन्ध या दुर्गन्ध का पता नही चलता। फ्री के चक्कर में चापलुसी की आदत पड गयी है।
पिछले दिनों आम आदमी पर्टी में जो कुछ हुआ वह राजनीति की दृष्टि में बहुत ज्यादा अप्रत्यासित नही है, पार्टी कोई भी हो अन्ततोगत्वा सत्ता प्राप्ति के बाद उन्ही सन्साधनों को अपनाती है जो प्रजातान्तरिक चेहरे को लहुलुहान करते रहे है। कुर्सी का चरित्र है जिसके कन्धे पर चढकर पद मिले सबसे पहले उनके पैर काटो ताकी भविष्य में उनके पैरों के निशान तक न मिले। कुर्सी चापलुसों से घिरी रहना चाहती है। कुछ का मानना है जनता का आंकलन गलत हो गया, कुछ अपरिपक्वता मान रहे है। लेकिन ये सब आधा सच है,
सत्य तो यह है कि हम स्वार्थ एवं विलासिता से युक्त सम्वेदना रहित समाज का निर्माण करने में व्यस्त है। बच्चों पर बस्तों के बोझ के साथ, पैकेज के दबाव और हृदय हीनता भी लाद रहे है। गुगल के जंगल में युवा वर्ग भटक गया है। बुढापा उपेक्षित हो गया है। कहां से आयेगा आर्दश नायक, विश्वसनीय नेता,। राजनीति के सभी मार्ग तो समाज से ही होकर गुजरते है। हमें स्वार्थी जुकाम से निजात पाना होगा, पवित्र राजनीति की चाह को त्याग कर समाजिक मुल्यो के निर्माण पर बल देना होगा। हमें स्वतः गांधी और बुद्ध के न्यूनतम संस्करण मिल जायेंगे।
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