दोहा-फागुन बसन

दोहा


 सरसों दुखी सिवान में  फागुन दिखा मरन्त।

रोटी ख़ातिर गाँव से  दुबई गया बसन्त।


राग फाग सब गाँव से हँसी ठिठोली दूर।

गठरी बांधे ले गये लुधियाना मज़दूर।।


सब अपने में व्यस्त हैं नयन अधर मुस्कान।

भइया निपट किसान हैं भउजी ग्राम प्रधान।


दोहा पर्यावरण

 जल वायु और वृक्ष हैं प्रकृति के सौगात। 

मन्द मन्द मुस्कात हैं हरियर हरियर पात।। 

                            

पेड़ काट कर बन रहे कंकरीट का धाम  

फैल गये है गांव तक अपने बिल्डर राम ।। 

                                                                                  पर्यावरण सँवारिये छोड़ सकल मतभेद 

 हो  ओजोन परत में नये नये नित छेद। 

                           

जल वायु और वृक्ष से अधरों की मुस्कान।।पर्यावरण बचाइये तभी बचेगी जान।। 

                            

पण्डित दीना नाथ चाहे चचा करीम। 

हर उत्सव में रोपिये बरगद पीपल नीम | |

                            

डॉ.अनिल चौबे

गीत

कैसा हिंदुस्तान आज का कैसा हिंदुस्तान है
नंगा यहाँ जुलाहा भाई भूखा यहाँ किसान है ।।

संतो और महंतो से ये देश आज का हारा है
पागल कुत्ते का काटा है चौधरियों का मारा है
कुर्सी में ईमान आज है कुर्सी में आज़ादी है
लोकतन्त्र अंधों का हाथी नेताओ की चाँदी है
जनता जैसे कूड़ा-करकट और खेत खलिहान है ।।

यह भी कैसा उलटफेर है पक्का चोर सिपाही है
गलियारे में फाग मचा हैं घर में मची तबाही है
अब भी दूरी बनी हुयी है रोटी और लँगोटी में
घर की सारी ख़ुशियाँ गिरवी केवल दाढ़ी चोटी में
यह बतलाना मुश्किल है जी कौन बड़ा शैतान है ।।

सब थाली के बैंगन है सब बेपेंडि के लोटे है
बातें सब की बड़ी बड़ी है करतब सबके छोटे हैं
सावधान रहना है हरदम हे भाई ग़द्दारों से
सर्वधर्म समभाव मुखौटा लैस यहाँ हथियारों से
गिरगिट सा ये रंग बदलते यह इनकी पहचान है ।।

इनको केवल वोट चाहिए हम जैसे यजमानों से
पूरे पूरे गाँव का सौदा होने लगा प्रधानों से
जाति धर्म भाषा को लेकर ये दंगा करवाते है
अपने -अपने मौक़े पर ये क़ौमो को मरवाते है
इनकी नीयत ठीक नहीं है गिरा हुआ ईमान है ।।

बेकारी है भुखमरी है महंगाई है देश में
वही ग़ुलामी नए सिरे से फिर आयी है देश में
पर्दा ही पर्दा है बाहर भीतर-भीतर पोल है
गाँव-गाँव की हुईं तरक़्क़ी सिर्फ़ दूर का ढोल है
फूलों का शौक़ीन हमारा बुलबुल लहूलूहान है ।।

कोई स्वाद नहीं मिलता है होली में दीवाली में
ख़ूनी भैंसा देह बनाता वह देखो हरियाली में
साठ गाँठ है मिली भगत है कैसी गुंडागर्दी है
जैसी उजली टोपी निकली वैसी ख़ाकी वर्दी है
तानाशाही यहाँ रहेगी उसे मिला वरदान है।।

कितना पानीदार देश है कितना पानीदार है
कुछ कहती सरकार यहाँ पर कुछ कहता अख़बार है
कोई नक़्शा सही नहीं है हर तस्वीर अधूरी है
गाँव सभा से लोकसभा तक अब बदलाव ज़रूरी है
अंधे की अगुवाई है यह दिशाहीन अभियान है ।।

सब कुछ जैसे पुश्तैनी है गद्दी यहाँ बपौति है
नेता को आदमी बनाना सबसे बड़ी चुनौती है
अफ़वाहों के रंग में डूबी बहती हुई हवायें है
रावण भी बहुतेरे देखो बहुतेरी लंकाएँ है
ख़तरे में रसखान देश का ख़तरे में भगवान है ।
             (कैलाश गौतम)
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ग़ज़ल


काम आसां न था ज़माने में,
उम्र खोई उसे भुलाने में।

रब्त टूटा वो कब्र तक आकर,
जान दी थी जिसे निभाने मे

एक बेफ़िक्री सी हुई तारी,
हाथ रक्खा जो उसने शाने में।

एक रोटी न दे सकी डिग्री
बाप भी बिक गया पढ़ाने में।।

रात भर दर्द मुस्कुराता रहा
गीत ग़ज़लों के शामियाने में।।

क़ैद हैं जाने कितने ही सागर,
उसकी आंखों के क़ैदख़ाने में।

दिल चहकने लगा है पंछी सा,
कौन आया ग़रीबखाने में।

ज़ख़्म, आँसूँ तड़प खराशें हैं,
इश्क़ तन्हा नहीं घराने में।

जिसके हिस्से में मौत आई थी,
मैं वो क़िरदार था फ़साने में।

हर बशर उम्र भर लगा ही रहा,
लाश अपनी 'अनिल' उठाने में।।
डॉ.अनिल चौबे

गीत

तुमने छोड़ा शहर
धूप दुबली हुई
पीलिया हो गया है अमलतास को

बीच में जो हमारे ये दीवार थी
पारदर्शी इसे वक्त ने कर दिया
शब्द तुम ले चलीं गुनगुनाते हुए
मैं संभाले रहा रिक्त ये हाशिया

तुमने छोड़ा शहर
तम हुआ चम्पई
नीन्द आती नहीं है हरी घास को

अश्वरथ से उतर कर रुका द्वार पर
पत्र अनगिन लिए सूर्य का डाकिया
फिर मेरा नाम ले कर पुकारा मुझे
दूरियों के नियम फेंक कर चल दिया

तुम ने छोड़ा शहर
उड़ रही है रुई
ढक रहे फूल सेमल के आकाश को

दौड़ता ही रहा अनवरत मैं यहाँ
तितलियों जैसे क्षण हाथ आए नहीं
जिन्दगी का उजाला छिपा ही रहा
दिन ने मुख से अधेंरे हटाए नहीं

तुमने छोड़ा शहर
याद बन कर जूही
फिर से महका रही घर की वातस को

भीड़ के इस समन्दर में हम अजनबी
एक अदृश्य बंधन में बंध कर रहे
जंगलों में रहे, पर्वतों में रहे
हम जहाँ भी रहे कोरे कागज रहे

तुमने छोड़ा शहर
नाव तट से खुली
शंख देखा किए रेत की प्यास को
      ✍️कुमार शिव 

गीत- रविन्द्र भ्रमर

आँखों ने बस देखा भर था,
मन ने उसको छाप लिया।

रंग पंखुरी केसर टहनी नस-नस के सब ताने-बाने,
उनमें कोमल फूल बना जो, भोली आँख उसे ही 



जाने,
मन ने सौरभ के वातायन से--
असली रस भाँप लिया।
आँखों ने बस देखा भर था
मन ने उसको छाप लिया।

छवि की गरिमा से मंडित, उस तन की मानक ऊँचाई को,
स्नेह-राग से उद्वेलित उस मन की विह्वल तरुणाई को,
आँखों ने छूना भर चाहा,
मन ने पूरा नाप लिया।
आँखों ने बस देखा भर था,
मन ने उसको छाप लिया।

आँख पुजारी है, पूजा में भर अँजुरी नैवेद्य चढ़ाए,
वेणी गूँथे, रचे महावर, आभूषण ले अंग सजाए,
मन ने जीवन-मंदिर में-
उस प्रतिमा को ही थाप लिया।
आँखों ने बस देखा भर था,
मन ने उसको छाप लिया।
         (रविंद्र भ्रमर)

सुभद्रा कुमारी चौहान

आज का गीत -87
 
उप्र की राजधानी लखनऊ के पास बैसवाड़ा क्षेत्र साहित्यिक रत्नों की खान है। खड़ी बोली के उत्थान के समय इस छोटे-से अंचल में एक साथ 



इतनी विभूतियाँ उत्पन्न हुई कि इस धरती को रत्नगर्भा कहा जाने लगा । निराला से लेकर नन्द दुलारे वाजपेयी और राम विलास शर्मा तक एक से एक बड़े नाम वहीँ से निकले। वहीँ से चमकीं  सुमित्रा कुमारी सिन्हा (1913 -1994 ) ,जिन्होंने एक ओर  स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी की, तो दूसरी ओर हिंदी गीत की धारा को प्रवाहित रखने में ऐतिहासिक योगदान किया। उनका जन्म  फैज़ाबाद में विजयादशमी के दिन हुआ था और  विवाह नईमपुर,उन्नाव के जमींदार परिवार में हुआ था  ,जहाँ उन्हें अपने साहित्यिक  सृजन को विस्तार देने का अवसर मिला। यह उस समय की रीति-रिवाज के विपरीत था ,लेकिन चूँकि परिवार में साहित्य-संगीत-कला  का सम्मान था ,इसलिए सुमित्राजी के गीतकार को अपने पंख फैलाने के लिए पूरा गगन मिल गया । हिन्दी की लोकप्रिय कवयित्री एवं लेखिका के रूप में अपनी  प्रसिद्धि के बल पर वे आकाशवाणी,लखनऊ से जुड़ गयीं ,जहाँ उन्होंने साहित्य -संगीत के विस्तार के साथ-साथ बाल साहित्य के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण काम किया। कवि-सम्मेलनों में मधुर कंठ से कविता पाठ करती थीं,इसलिए उनके नाम की  धूम थी ।उन दिनों कवि सम्मेलन वाग्देवी के मंदिर हुआ करते थे ,इसलिए सुमित्राजी का मंचों पर जाना गौरव की बात समझी गयी । उनके जीवन के उत्तरार्ध  में मुझे भी उनके साथ कई बार आकाशवाणी के कवि सम्मेलनों में काव्यपाठ करने का सौभाग्य मिला। अत्यंत सहज-सरल और गुणज्ञ महिला थीं वह। मिलने पर बहुत स्नेह देती थीं। उनकी प्यार भरी स्नेहिल चुटकियाँ आज भी याद आती हैं ,तो मन कहीं अतीत में खो जाता है।  साहित्य-सृजन की दृष्टि से इनका परिवार आदर्श परिवार था । पुत्री कीर्ति चौधरी ने (मूल नाम कीर्तिबाला सिन्हा) 'तार सप्तक' की प्रसिद्ध कवियित्री के रूप में अपनी पहचान बनाई। साथ ही ,'पाँच जोड़ बाँसुरी ' की कवयित्री के रूप में हिंदी के नवगीतकारों में भी प्रथम पंक्ति में बैठी। पुत्र अजित कुमार और पुत्रवधू स्नेहमयी चौधरी दोनों प्रतिष्ठित कवि  थे। यहाँ तक कि दामाद ओंकारनाथ श्रीवास्तव भी न केवल  बीबीसी के यशस्वी अधिकारी थे,अपितु श्रेष्ठ कथाकार भी । अजित कुमार जी ने बच्चन रचनावली ( 9 खण्ड ) का संपादन किया ही ,सुमित्रा कुमारी सिन्हा रचनावली ,कीर्ति चौधरी रचनावली और ओंकारनाथ जी के कथा संग्रह का संपादन भी किया।  सुमित्रा जी के कविता संकलन  विहाग (1940), आशापर्व (1942), बोलों के देवता ( 1954),कहानी संग्रह - अचल सुहाग (1939) वर्ष गाँठ (1942) के  अलावा अन्य रचनाएँ - पंथिनी, प्रसारिका, वैज्ञानिक बोधमाला, कथा कुंज, आँगन के फूल, फूलों के गहने, आंचल के फूल, दादी का मटका चर्चित रही हैं। उनका यह गीत तत्कालीन परिवेश, शब्दावली , गीत के कलेवर में कथातत्व और गीत के शिल्प की दृष्टि से मननीय है। - बुद्धिनाथ मिश्र 
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  ओ दूर देश के वासी  

चले जा रहे होगे तुम,ओ दूर देश के वासी।
चली रात भी, चले मेघ भी,चलने के अभ्यासी।

भरा असाढ़,घटाएँ काली नभ में लटकी होंगी;
चले जा रहे होगे तुमकुछ स्मृतियाँ अटकी होंगी।
छोड़ उसाँस बैठ गाड़ी में दूर निहारा होगा,
जबकि किसी अनजान दिशा ने तुम्हें पुकारा होगा,
हहराती गाड़ी के डिब्बे में बिजली के नीचे,
खोल पृष्ठ पोथी के तुमने होंगे निज दृग मींचे।
सर सर सर पुरवैया लहकी होगी सुधि मंडराई, 
तभी बादलों ने छींटे दे होगी तपन बढ़ाई।
खिड़की में मुँह डाल सोचते होगे तुम यों उन्मन 
कितनी तृष्णा से पूरित हैमानव का नन्हा मन।í
गाड़ी के हलके हिलकोरों से तन डूबा होगा।
भरी भीड़ में एकाकीपन से मन ऊबा होगा।
धमक उठे होंगे सहसा मेघों के डमरू काले।
विकल मरोर उठे होंगे तब घने भाव मतवाले।
दामिनि झमक उठी होगी अम्बर की श्याम-अटा पर;
युगल नयन भी नीरव बरसे होंगे उसी घटा भर।
रैन बसेरा पल भर का फिर चल ही दिए, बटोही !
भोली कलियों को काँटों की ओट किए, निर्मोही !
चलो, न रोकूँ; साथ तुम्हारे विकल-भावना मेरी।
चलो, न टोकूँ; साथ तुम्हारे विजय-कामना मेरी ।
चलते रहो सचेत बटोही,कभी मिलेगी मंजिल ।
मिल लेंगे हम ज्यों झोंके से लहराती मलयानिल ।
बदले जीवन-चक्र दिशा गति मुक्त मार्ग-अनुगामी।
 किंतु खिलाये रखना तब तक सपने कुछ आगामी ।
मधुर नेह रस के सागर से रीत न जावें आँखें,
घिर न रहें पथ की सीमाओं में आशा की पाँखें।
चले जा रहे होगे तुम,ओ दूर देश के वासी ।
चली रात भी,चले मेघ भी,चलने के अभ्यासी ।

@सुमित्रा कुमारी सिन्हा

लेखक--बुद्धिनाथ मिश्र जी