गंगा


काटती हूँ पाप ताप मुक्ति बांटती हूँ सदा
भूमि उपजाऊ कर पेट भरती हूँ मैं।
ऊंच नीच भेद भाव त्यागकर तट पर
शाह की फ़कीर की भी प्यास हरती हूँ मैं।
दिव्य जटा शीशचन्द्र छोड़ कर उतर आई
भूल बड़ी हो गई विचार करती हूँ मैं।
शहर की सभ्यता ने दूषित किया है जल
शम्भू तेरे शीश चढ़ने से डरती हूँ मैं।
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ब्रह्मद्रवी आर्त हो पुकारती है ब्रह्मदेव
आठो नयनों से मेरे नीर को निहार दो।
मनचले सीवरों से तंग हो गई हूँ तात
दम घुटने लगा है कोई उपचार दो।
कबतक अचरा से कचरा मैं ढोती रहूँ
अनचाही भाग्य की लकीर को सँवार दो।
या तो मुझे फिर से कमण्डलु में कैद करो
या तो मेरी दयनीय दशा को सुधार दो।

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