ग़ज़ल


काम आसां न था ज़माने में,
उम्र खोई उसे भुलाने में।

रब्त टूटा वो कब्र तक आकर,
जान दी थी जिसे निभाने मे

एक बेफ़िक्री सी हुई तारी,
हाथ रक्खा जो उसने शाने में।

एक रोटी न दे सकी डिग्री
बाप भी बिक गया पढ़ाने में।।

रात भर दर्द मुस्कुराता रहा
गीत ग़ज़लों के शामियाने में।।

क़ैद हैं जाने कितने ही सागर,
उसकी आंखों के क़ैदख़ाने में।

दिल चहकने लगा है पंछी सा,
कौन आया ग़रीबखाने में।

ज़ख़्म, आँसूँ तड़प खराशें हैं,
इश्क़ तन्हा नहीं घराने में।

जिसके हिस्से में मौत आई थी,
मैं वो क़िरदार था फ़साने में।

हर बशर उम्र भर लगा ही रहा,
लाश अपनी 'अनिल' उठाने में।।
डॉ.अनिल चौबे

1 टिप्पणी: