तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो ..........

एक सम्भ्र्रान्त टाइप के आदमी को हंसते हुये देखकर जैसे ही हमने मुखडा फेंका कि ’’तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो क्या गम है जिसको,,,,,। बस इतना ही सुनते अगला किसी पार्टी का राष्ट्रीय प्रवक्ता की तरह स्टार्ट हो गया¬- क्या भाई साहब, आप को पता नही आज विश्व हास्य दिवस है आज तो हंस लेने देते। आज भी जो नही हंसेगा उसकी गिनती आदमियों की श्रेणी में नही होगी । वो तो भला हो संचार माध्यमों का जिन्होने हमें याद दिला दिया कि हंसना कितना जरूरी है और पुरे विश्व में इसके लिए एक दिन हास्य दिवस कि घोषणा की गयी है । वरना हंसी तो आदमी के जीवन से ऐसे गायब हो गयी है जैसे भाजपा के एजेन्डे से राम मन्दिर । जैसे मजदूर दिवस पर मजदूर याद आते है, बाल दिवस पर बच्चे, शिक्षक दिवस पर गुरू, वैसे ही हास्य दिवस पर हंसी आती है । निश्छल और उन्मुक्त हंसी तो कहीं भी नही दिखती । या तो महिलायें अकारण हंसती है या तो बच्चे। महिलाओं की हंसी सर्वाधिक सुन्दर और अत्याधुनिक दिखने के चक्कर में माॅल संस्कृति में कही खो सी गयी है और बच्चो की हंसी होमवर्क के ओवर लोड, तथा कान्वेन्ट के भारी बस्ते तले दब गयी है, तो अविभावकों की हंसी भारी भरखम फीस की जुगाड में गायब है । अब तो हंसी टी वी पर विज्ञापनों मे ही नजर आती है। मनुष्य जानवरों से अगल इस लिये है कि मुस्कुरा सकता है । विधाता का यह एक ऐसा वरदान है जो केवल आदमी को मिला है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि ’’हंसी केवल आदमी को आती है वनमानुष नही हंसता यदि किसी चिडिया घर में हंसता हुआ दिख जाये तो समझ लेना चाहिए कि धिरे धिरे आदमी होने की प्रक्रिया  में है’’। लेकिन उत्तर आधुकिता से ग्रस्त आज का आदमी न हंसता है और न हंसने देता है। बकौल शायर-
              या तो दीवाना हंसे या अल्लाह जिसे तौफिक दे।
               वरना इस दुनिया में आकर मुस्कुराता कौन है।

 विश्व का कोई भी धर्म, शिक्षण संस्थान, या प्रशिक्षक हंसना मुस्कुराना नही सिखलाता, इसलिए हंसना कठिन है और हंसाना उससे भी कठिन। समाज और व्यक्ति के संगति के बीच कोई विसंगति आ जाये तो हंसी आती है। अमीर और गरीब दोनों हंसते है , लेकिन दोनों की हंसी में अन्तर बस इतना सा होता है गरीब पगार पाकर हंसता है अमीर टैक्स चुराकर। देश की राजनीति, भ्रष्ट्राचार, महंगाई, बेरोजगारी, ये तमाम विसंगतियां हमें खुल कर हंसने की इजाजत नही देती

                            झील पर पानी बरसता है हमारे देश में

                               खेत पानी को तरसता है हमारे देश में

                                जिंदगी का हाल खस्ता है हमारे देश में

                                 पानी महंगा खून सस्ता है हमारे देश में

                                   लीडरो अफसरों और पागलों को छोडकर

                                       कौन अब खुल के हंसता है हमारे देश में


 जिस दिन अमीरी, गरीबी, उॅंच, नीच, जाति सम्प्रदाय ये सब भेद भाव मिट जायेगें। उसी दिन आदमी वास्तविक हंसी हंस सकेगा और उपर वाला भी हमें देखकर जरूर मुस्कुरा देगा।

3 टिप्‍पणियां:

  1. काम के बोझ तले दबे एक अरसा हो गया खुल कर हँसे हुए। आज आपका व्यंग्य पढ़कर लगा कि कितनी कीमती चीज चुपके से निरर्थक होती जा रही है और हम कृतिम आवश्यकताओं के जाल में फँसते जा रहे हैं।
    वर्तमान समय के तथाकथित मुख्य धारा और उसमें बहते हाँफते लोगों के लिए शायद अभिज्ञान मुद्रिका साबित हो यह लेख और लोग खुल के हँसना सीख लें।
    उत्तम प्रयास।

    जवाब देंहटाएं