विष्णु के चरण
ब्रह्मा के कमन्डल
महादेव की जटाओं से
गोमुख होते हुए
भगीरथ के पीछे पीछे चल पडी
स्वच्छन्द उच्छल
अविरल निर्मल
कलकल प्रतिपल
सारे पडाओं से मुंह मोडकर
मैं आ गयी
उमा जैसी सहेली को छोडकर
..........................................................
भगीरथ ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ में
मुझे भू पर उतारा था और
मैंने तो सगर के साठ हजार
उन्मत्त सन्तानों को
निस्वार्थ तारा था
बस तभी से
तारणी का दंश अब तक
सह रही हूॅ
मैं गंगा हूॅ अनवरत
बह रही हॅू।
................................................................
गंगा तव दर्शनाद् मुक्ति
गााने वालो
मेरे जल से झुठी कसमें
खाने वालो
उल्टी पुल्टी गंगा रोज
बहाने वालो
मेरे नाम पर खाने और
कमाने वालो
सुन लो
मैने तो जाति पाॅति
उच नीच धर्म सम्प्रदाय
संस्कृति संस्कार तीज त्योहार
सभी को एक जगह
जोडा है
और तुमने
कई जगह बांन्धों में बान्धकर
मेरी गति को मोडा है
अरे तुमने तो इतने पाप धोये है कि
मुझे आचमन लायक भी
नही छोडा है
’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’
ऋषि पराशर की प्यासी कथा हो
या कुंवारी कुन्ती का रहस्य
मैं चुप चाप अपनी कोख में
सबकुछ पचा जाती हूॅ
लेकिन जब भी कोई श्रद्धा से
माॅ कह कर बुलाता है तो
रैदास की कठौती में भी
आ जाती हॅू
’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’
तुम्हे दिख रहा है
सम्मानित शहर के बीचों बीच से
झुमता हुआ आरहा
बदनाम नाला
जो सीवरों की संगति से
हो गया है और काला
यह बदबुदार बदमास
बिल्कुल बिगडैल है
कई कम्पनियों की
छोटी मोटी नालियां
इसकी रखैल है
बडी शान से बजबजाकर
उफनाता हुआ तेरी आॅखों के सामने
मुझ में मिल कर
पुरी दुनिया को चिढाता है
तमाम सफाई अभियान के मुंह
पर कालिख लगाता है।
’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’
क्यों रे कवि
तू तो क्रान्तद्रष्टा
युगस्रष्टा है न
मैने तो तेरे बाप दादे
टाईप के कवियों को
देखा और सुना है
जो काशी प्रयाग ऋषिकेश
तक जाकर मेरी प्रशंसा में
कवितायें सुनाते है
किन्तु कभी गंगा नही
नहाते है
तू भी भावातिरेक में ब्याजस्तुति की
कल्पनाओं में खो जायेगा
अन्त में मिनिरल वाटर पी के
सो जायेगा
अतः तू जाग और सबको जगा
मेरे पास दुःख है
वेदना है शब्द नही है
माॅ जानकी नही
जहान्वी हॅू मैं
मेरी
अन्तर्वेदना से यह धरा
फट भी गयी
तो मैं उसमें समा नही सकती
मैं जगतारणी हॅू
जहाॅ से आई हॅू वहाॅ
वापस जा नही सकती।
ब्रह्मा के कमन्डल
महादेव की जटाओं से
गोमुख होते हुए
भगीरथ के पीछे पीछे चल पडी
स्वच्छन्द उच्छल
अविरल निर्मल
कलकल प्रतिपल
सारे पडाओं से मुंह मोडकर
मैं आ गयी
उमा जैसी सहेली को छोडकर
..........................................................
भगीरथ ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ में
मुझे भू पर उतारा था और
मैंने तो सगर के साठ हजार
उन्मत्त सन्तानों को
निस्वार्थ तारा था
बस तभी से
तारणी का दंश अब तक
सह रही हूॅ
मैं गंगा हूॅ अनवरत
बह रही हॅू।
................................................................
गंगा तव दर्शनाद् मुक्ति
गााने वालो
मेरे जल से झुठी कसमें
खाने वालो
उल्टी पुल्टी गंगा रोज
बहाने वालो
मेरे नाम पर खाने और
कमाने वालो
सुन लो
मैने तो जाति पाॅति
उच नीच धर्म सम्प्रदाय
संस्कृति संस्कार तीज त्योहार
सभी को एक जगह
जोडा है
और तुमने
कई जगह बांन्धों में बान्धकर
मेरी गति को मोडा है
अरे तुमने तो इतने पाप धोये है कि
मुझे आचमन लायक भी
नही छोडा है
’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’
ऋषि पराशर की प्यासी कथा हो
या कुंवारी कुन्ती का रहस्य
मैं चुप चाप अपनी कोख में
सबकुछ पचा जाती हूॅ
लेकिन जब भी कोई श्रद्धा से
माॅ कह कर बुलाता है तो
रैदास की कठौती में भी
आ जाती हॅू
’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’
तुम्हे दिख रहा है
सम्मानित शहर के बीचों बीच से
झुमता हुआ आरहा
बदनाम नाला
जो सीवरों की संगति से
हो गया है और काला
यह बदबुदार बदमास
बिल्कुल बिगडैल है
कई कम्पनियों की
छोटी मोटी नालियां
इसकी रखैल है
बडी शान से बजबजाकर
उफनाता हुआ तेरी आॅखों के सामने
मुझ में मिल कर
पुरी दुनिया को चिढाता है
तमाम सफाई अभियान के मुंह
पर कालिख लगाता है।
’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’
क्यों रे कवि
तू तो क्रान्तद्रष्टा
युगस्रष्टा है न
मैने तो तेरे बाप दादे
टाईप के कवियों को
देखा और सुना है
जो काशी प्रयाग ऋषिकेश
तक जाकर मेरी प्रशंसा में
कवितायें सुनाते है
किन्तु कभी गंगा नही
नहाते है
तू भी भावातिरेक में ब्याजस्तुति की
कल्पनाओं में खो जायेगा
अन्त में मिनिरल वाटर पी के
सो जायेगा
अतः तू जाग और सबको जगा
मेरे पास दुःख है
वेदना है शब्द नही है
माॅ जानकी नही
जहान्वी हॅू मैं
मेरी
अन्तर्वेदना से यह धरा
फट भी गयी
तो मैं उसमें समा नही सकती
मैं जगतारणी हॅू
जहाॅ से आई हॅू वहाॅ
वापस जा नही सकती।
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