असि.प्रोफेसर ज्योतिष विभाग, सं.वि.ध.वि.संकाय,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
मानव जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं में गृह का महत्वपूर्ण स्थान है। गृह के विना गृही अथवा गृहस्थ की सिद्धि सम्भव नहीं है। सभी आश्रमों का महत्वपूर्ण आश्रम गृहस्थाश्रम सभी शेष तीन आश्रमों का पालन करता है। (वास्तुरत्नाकर 1/4) गृहस्थ पद के मूल गृह निर्माण की समस्त प्रक्रियाओं का निदर्शन करना हीं वास्तुशास्त्र का प्रधान उद्देश्य है। वास्तुशास्त्र के अनुरूप निर्मित गृह में सभी प्रकार की उपलब्धि तथा सुख-शान्ति की प्राप्ति होती है। अतएव गृहनिर्माण में वास्तुशास्त्र के महत्व को सर्वतोभावेन महत्वपूर्ण अंगीकृत किया गया है। गृहनिर्माण हेतु भू-चयन से प्रारम्भ कर गृहप्रवेश तक की समस्त विधाओं का सूक्ष्म विवेचन किया गया है। हमारे मन्त्रद्रष्टा ऋषियों ने अपने प्रयोग एवं तपस्या के द्वारा जिन मानदण्डों एवं विविध प्रकार के मापकों का प्रयोग किया है, वस्तुतः वह आज भी उतना हीं प्रासंगिक है जितना वर्षों पूर्व था।
गृह-द्वार का विचार वास्तुशास्त्र का प्रमुख विचारणीय पक्ष है। द्वार के माध्यम से हीं हम गृह के अन्दर प्रवेश करते हैं तथा शुभाशुभ सभी कृत्य वा अनुष्ठान भी सम्पन्न इसी के द्वारा करते हैं। द्वार व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं यश-मान-प्रतिष्ठा का द्योतक भी होता है, जिससे स्वतः बहुत सारे विषयों का ज्ञान देखकर हो जाता है। ऐसी स्थिति में गृहद्वार का विचार विस्तृत रूप से वास्तुशास्त्र में किया गया है परन्तु प्रस्तुत शोधपत्र में दक्षिण दिग्- द्वार के विविध प्रकार एवं विषय तथा प्रासंगिकता एवं आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में विवेचन किया जा रहा है। यद्यपि शास्त्रों में गृहद्वार की परिकल्पना चतुर्दिक् बताई गई है और प्रायः समस्त ज्योतिषशास्त्रीय एवं वास्तुशास्त्रीय ग्रन्थों में विस्तृत रूप से इसकी परिचर्चा भी की गई है तथापि दक्षिण दिग्द्वार को लेकर साधारण जनों में एवं लोक में एक विशेष दृष्टि रही है अतः इसका गहन अध्ययन एवं निष्कर्ष के निर्धारण करनें का प्रयास किया जा रहा है।
दक्षिण दिग्- दिक् की उपयोगिता मानव जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। दिग्ज्ञान के विना किसी भी कार्य को करना या एक पद भी चलना असंभव सा प्रतीत होता है। ‘प्राच्यादि व्यवहारहेतोः दिक्’ परिभाषा पूर्व आदि दिशाओं की अवबोधिका रूप में विद्यमान हैं। ज्योतिष शास्त्र में दिक् पद पारिभाषिक पद के रूप में पाया जाता है, जिसका संख्यात्मक व्यवहार 10 के बराबर माना जाता है। यजुर्वेद के ‘दिशश्च मे’ पद के द्वारा दिशाये कल्याणकारक हों की कामना प्राप्त होती है। आधुनिक विज्ञान की परम्परा के अनुसार खगोल एवं भगोल दोनों हीं दृष्टियों से दिशाओं की भूमिका अतीव महत्वपूर्ण है। इस प्रकार दिग्- पद का प्रयोग समस्त संस्कृत वाङ्मय में विस्तृत रूप से पाया जाता है जिसमें 10 दिशाओं का विभाजन निम्नलिखित प्रकार से प्राप्त होता है।
1. पूर्व, 2. अग्नि, 3. दक्षिण, 4. नैऋत्य, 5. पश्चिम,
6. वायव्य, 7. उत्तर, 8. ईशान, 9. उध्र्व, 10. अधः
दिशाओं के 10 भेद या प्रकार होने के कारण हीं दिक् पद से 10 का अर्थबोध ज्योतिष शास्त्र में किया जाता है। त्रिप्रश्नाधिकार का सर्वप्रथम अवयव दिग् हीं स्वीकार कर दैवज्ञों ने सबसे पहले दिग् साधन की सूक्ष्मता का विवेचन सभी सिद्धान्त ग्रन्थों में किया है। समीक्षा की दृष्टि से विचार करें तो पाते हैं कि दिशायें भी एक मापक हैं इस ब्रह्माण्ड का, जिसके विषय में मानव मस्तिष्क सतत् अन्वेषण के लिए तत्पर रहता है। गणितीय आधार पर स्थूल-सूक्ष्म भेद दिग् के होते हैं परन्तु पूर्वादिक्रम में किसी भी प्रकार का विभाजन नहीं प्राप्त होता है। इस प्रकार सभी दिशायें तद्-तद् कार्य व्यवहार एवं मानक के रूप में निश्चित रूप से ग्राह्य हैं। जितना महत्व शास्त्रकारों ने पूर्व को दिया है उतना हीं महत्व दक्षिण दिग् को भी प्राप्त होता है। ऐसी परिस्थिति में दक्षिण दिग् को दोषप्रद स्वीकारना या दक्षिण के तरफ द्वार निर्माण न करना तथ्यविहीन सा प्रतीत होता है।
(क) ज्योतिष के अनुसार द्वार की अवधारणा- प्रस्तुत सन्दर्भ में ज्योतिषशास्त्रीय व्युत्पत्ति मीमांसा से अर्थमूलक एवं कोशमूलक अर्थग्रहण करते हैं तो पाते हैं कि द्वार पद नपुंसकलिंग है जिसकी व्युत्पत्ति होती है- ‘‘द्वरति निर्गच्छति गृहाभ्यन्तरादनेनेति’’ (दृ$घ´्)। इसके सन्दर्भ को बताते हुए शब्दकल्पद्रुम (पृष्ठ 763) में लिखा है कि-
‘‘गृहिणां शुभदं द्वारं प्राकारस्य गृहस्य च।
न मध्यदेशे कर्तव्यं किंचिन्न्यूनाधिकं शुभम्।।’’
- ब्रह्मवैवर्तपुराण, कृष्णजन्म खण्ड-763
इस व्युत्पत्ति के आधार पर यदि विचार करें तो पाते हैं कि जिसके द्वारा घर से बाहर निकला जाय वह द्वार कहलाता है। ऐसा हीं प्रसंग द्वार के निर्धारण में बाये एवं दाये के ज्ञानार्थ प्राप्त होता है कि
‘‘दक्षिणा¯ः स वै प्रोक्तः मन्दिरान्निः सृते सति।
यो भूयाद्दक्षिणे भागे वामे भुयात् स वामगः।।’’ वास्तुरत्नाकर 8/30
यहाँ भी बाहर निकलते समय हीं दाँया एवं बाँया का ज्ञान बताया गया है।
परन्तु प्रस्तुत निमित्तमूलक व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ के आधार पर यदि विचार करते हैं तो, यहाँ पाते हैं कि क्या वो सभी द्वार जिससे निकला जाता है द्वार हंै? यहाँ अतिव्याप्ति दोष है। कदाचित् कुछ घरों में आने का अन्य एवं लौटने का अन्य द्वार होता है वैसी स्थिति में लोक व्यवहार में प्रसिद्ध एवं प्रवृत्तिमूलक जिससे गृहाभ्यन्तर प्रविष्ट हुआ जाय, नामक द्वार तिरस्कृत हो रहा है।
कर्मकाण्ड की प्रक्रिया के अन्तर्गत नूतन गृहप्रवेश करते समय द्वार पर पाँच देवताओं का पूजन करना भी प्रवेश की महत्ता हेतु मुख्यद्वार को द्योतित करता है। यह पूजन पिण्ड (गृहाभ्यन्तर) में प्रवेश से पूर्व हीं होता है न कि बाहर निकलते समय। ज्योतिष शास्त्रीय परम्परा के आद्य पौरुषेय ग्रन्थकार आचार्य वराहमिहिर ने बृहत्संहिता के वास्तुविद्याऽध्याय में लिखा है कि-
‘‘मूलद्वारं नान्यैद्र्वारैरभिसन्दधीतरूपद्धर्या।
घटफलपत्रप्रमथादिभिश्च तन्म¯लैश्चिनुयात्।।’’ बृहत्संहिता 52/80
आचार्य भटोत्पल कहते हैं कि ‘‘मूलद्वारं नाम प्रधानमिति’’। इस प्रकार पूर्वोक्त पद्य से एवं भटोत्पल की व्याख्या से यह प्रतीत होता है कि प्रत्येक गृह में 2 प्रकार के द्वार
होते हैं एक तो वह जो प्रधान द्वार है अन्य द्वार गौड या अप्रधान है। इससे यह भी सुनिश्चित होता है कि, प्रधान द्वार एक हीं होता है और उससे अधिक सुन्दर अन्य द्वार को नहीं करनी चाहिए।
मूलद्वार को ही आचार्य श्री विन्ध्येश्वरी प्रसाद द्विवेदी जी ने वास्तुरत्नाकर नामक ग्रन्थ में ‘‘सदर दरवाजा’’ कहते हैं (वास्तुरत्नाकर, पृष्ठ 78)। वास्तुराजवल्लभ (5/73-74) में प्राप्त होता है कि ‘प्रधानद्वारमपहाय सर्वाणि द्वाराणि तुल्यप्रमाणानि विधेयानि।’
अर्थात् प्रधान द्वार सबसे बड़ा एवं मनोरम बनावें तथा शेष द्वारों को समान प्रमाण का बनावें। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन के आधार पर भी सुनिश्चित हो जाता है कि प्रधान द्वार एक ही होता है, जिससे सभी प्रमुख शुभकार्य में प्रवेश एवं निर्गमन किया जा सके।
(ख) प्रधान द्वार का स्थान- प्रधान द्वार के स्थान के निर्धारण के लिए मुख्य रूप से गृहपिण्ड (लम्बाई चैड़ाई) को हीं सैद्धान्तिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाएगा। कहा गया है कि - गर्भमात्रं भवेद् गेहं नृणां प्रोक्तं पुरातनैः।
वास्तुरत्नाकर 5/15
इस प्रकार पिण्ड के भीतर ही गृह का निर्माण करना चाहिए।
गृहपिण्ड ;ब्वअमतमक ंतमंद्ध में हीं मुख्यद्वार बनाना चाहिए, जिसके निर्धारण हेतु बहुत प्रकार के मानक बताये गये हैं। आचार्य विश्वकर्मा कहते हैं कि ‘‘द्वाराणां चैव विन्यासाः पक्षाः पंचदशस्मृताः।’’ (विश्वकर्मप्रकाश 7/1) अर्थात् द्वार के विन्यास क्रम में 15 प्रकार के पक्ष बतायें गये हैं।
इस प्रकार सर्वतोभावेन सैद्धान्तिक दृष्टया जो सबसे महत्वपूर्ण एवं गणितीय परम्परा से युक्त व्यवहारोपयोगी पक्ष या विधि प्राप्त होती है। वह यह है कि-
‘‘नवभागं गृहं कृत्वा पøाभागं तु दक्षिणे।
त्रिभागमुत्तरे कृत्वा शेषं द्वारं प्रकीर्तितम्।।’’ - वास्तुरत्नाकर, पृ. 86
उपर्युक्त विधि के आधार पर विचार करते हैं तो पाते हंै कि, इस नव भाग एवं 5, 3 आदि भाग पिण्ड के द्वारा हीं निर्धारित होते हैं और गृहपिण्ड हीं मापक सिद्ध होता है। जिससे विचार कर प्रधान द्वार का स्थान निर्धारित करते हैं।
प्रस्तुत सन्दर्भ को कुछ लोग चाहरदिवारी ;ठवनदकंतलद्ध के साथ जोड़कर मुख्यद्वार के स्थान का निर्धारण करते हैं, यह सर्वथा अनुचित एवं अप्रमाणिक पक्ष है। आखिर किस आधार पर चाहरदिवारी (पिण्ड से बाहर) की द्वार को मुख्यद्वार स्वीकार किया जाय? जो शास्त्रीय परम्परा में कहीं भी नहीं प्राप्त होता है न हि सैद्धान्तिक युक्ति हीं प्रतीत होती है। सामान्य तर्कों के आधार पर तथा अज्ञानता वश लोग चाहरदिवारी को हीं गृहपिण्ड मानकर द्वार का सन्निवेश करने लगते हैं, यह अशास्त्रीय एवं अव्यवहारिक पक्ष है। निष्कर्ष रूप में गृह पिण्ड के अन्तर्गत हीं मुख्यद्वार बनाना चाहिए और चाहरदिवारी से मुख्यद्वार का कोई सम्बन्ध नहीं है ऐसा जानना चाहिए।
(ग) प्रधानद्वार की दिशा- आचार्य विश्वकर्मा ने लिखा है कि द्वार के विन्यास में 15 पक्ष हैं, यथा-
अथातः शृणु विप्रेन्द्रद्वारलक्षणमुत्तमम्।
द्वाराणां चैव विन्यासाः पक्षाः पंचदश स्मृताः।।
- विश्वकर्मप्रकाश 7/1
इस प्रकार सभी 15 प्रकार के विन्यास की समीक्षा करें तो पाते हैं कि चाहें मासादि क्रम से स्थापना हो, राशिपरक हो, सूर्य की राशि स्थिति परक हो, तिथिपरक हो, राशियों के द्वारा निर्मित विप्रादिवर्ण परक हो, चन्द्रराशि स्थिति परक हो, मास परक हो, वार परक हो, द्वारचक्र परक हो या नक्षत्र परक हो, प्रायः समस्त स्थलों पर चारों दिशाओं में प्रधान द्वार बनाने को कहा गया है। यहाँ किसी भी दिग् विशेष का निषेध नहीं है। इस प्रकार विश्वकर्मा जी के मतानुसार पूर्व, दक्षिण, पश्चिम एवं उत्तर (चारों) दिशाओं में मुख्यद्वार निर्माण करना चाहिए। यदि ग्रन्थान्तर का विचार करें तो पाते हैं कि, ‘‘वैश्यानां दक्षिणे शुभम्’’ वास्तुराजवल्लभ 1/12। बृहद्दैवज्ञरंजन 86/354, वास्तुप्रदीपकार (46) कहते हैं कि ‘‘वैश्यस्य ज्ञेयं यमदिङ्मुखं हि’’। वास्तुरत्नाकरकार (8/45) कहते हैं कि-
‘‘द्वारं चतुर्विधं प्रोक्तं वास्तुसंक्रान्तिमायजम्।
कृत्वा चान्यतमं मुख्यं गवाक्षाद्यैः पराणि च।।’’
इस प्रकार चारों दिशाओं में मुख्यद्वार का विधान बताया गया है, जिसमें किसी भी दिशा का निषेध या दुष्फल नहीं प्राप्त होता है। एक स्थान विशेष पर प्राप्त होता है कि,
‘‘प्राग्द्वाराष्टकमध्यतोऽपि न शुभं सूर्येशपर्जन्यतो।
याम्यायां च यमाग्नि पौष्णमपरे शेषासुरं पापकम्।
सौम्यामथ रोगनागगिरिजं त्याज्यं तथान्यच्छुभं।
कैश्चिद् दारुणसौम्यकं नहि हितं प्रोक्तं च वातायने।।’’
- वास्तुराजवल्लभ 5/27
अर्थात् पूर्वदिशा में अष्ट (पदों) द्वारों में ईश, पर्जन्य, सूर्य एवं मध्यद्वार प्रशस्त नहीं है। दक्षिण दिशा में अग्नि, पूषा एवं यम द्वार शुभ नहीं है। पश्चिम में शोष, असुर एवं पाप द्वार अशुभ है तथा उत्तर दिशा में रोग, नाग एवं पर्वत का द्वार अशुभ होते हैं। कुछ विद्वान् उत्तर दिशा के द्वार को कष्टप्रद मानते हैं। इस प्रकार वास्तु के एकाशीति पदों में स्थित देवताओं के आधार पर द्वार निषेध बताया गया है परन्तु सभी दिशाओं में द्वार का स्थापन बताया गया है। द्वार संख्या क्रम में प्राप्त होता है कि-
‘‘एकं द्वारं प्राङ्मुखं शोभनं स्याच्चतुर्वक्त्रं धातृभूतेशजैने।
युग्मं प्राच्यां पश्चिमेऽथ त्रिकेषु मूलद्वारं दक्षिणे वर्जनीयम्।।’’
- वास्तुरत्नाकर 8/49
अर्थात् 1 द्वार बनाना हो तो पूर्व में अच्छा होता है। ब्रह्म, शिव एवं जैन मन्दिरों में चारों तरफ तथा 2 द्वार बनाना हो तो पूर्व एवं पश्चिम में एवं 3 द्वार बनाना हो तो दक्षिण दिग का त्याग देनी चाहिए।
इस प्रकार सर्वतोभद्र आदि उत्तम वास्तु में चतुर्दिक द्वार का नियोजन बताया गया है। निष्कर्ष रूप में प्राप्त होता है कि, चाहे विश्वकर्मा का द्वार निर्माण का 15 प्रकार हो या 4 प्रकार सूत्रधार मण्डन के द्वारा बताया गया हो या अन्य किसी भी प्रकार का भेदोपभेद बताया गया हो परन्तु सर्वत्र चारों दिशाओं में द्वार (प्रधान) बनाने का निर्देश है।
(घ) दक्षिण दिग् द्वार- वास्तुशास्त्रीय ग्रन्थों में चतुर्दिक् द्वार को प्रायः समस्त ग्रन्थकारों नें वर्णित किया है। द्वार की संख्या एवं वर्ण द्वारा उद्बोधित राशियों के आधार पर भी चारों दिशाओं में द्वार निर्माण को बताया गया है। प्रस्तुत ईकाई के अन्तर्गत हम दक्षिण दिग् द्वार को विवेचित कर रहे हैं।
प्रायः शास्त्रकारों नें वैश्यों के लिए दक्षिण दिग् द्वार को उत्तम बताया है परन्तु यहाँ कुछ स्थलों पर वर्ण का आधार राशि को स्वीकृत कर बताया गया है। आचार्य विश्वकर्मा ने द्वार विनिर्माण के 15 प्रकार के विन्यास को बताया है परन्तु वहाँ भी चारों दिशाओं में द्वार बनाने का निर्देश किया गया है।
सर्वप्रामाणिक एवं सभी विद्वानों के द्वारा समादृत विधि ‘‘नवभागं गृहं कृत्वा ........’’ का निर्देश भी चतुर्दिक द्वार के लिए किया गया है। मूलतः यहाँ किसी भी दिग् का निर्धारण न होने के कारण दक्षिण दिग् द्वार भी शुभप्रद माना गया है।
दक्षिण दिग् द्वार निर्माण के पक्ष में कुछ तथ्य-
1. सर्वाधिक प्रामाणिक द्वार निर्माण की विधि ‘‘नवभागं गृहं कृत्वा’’ में दिग् का निर्धारण न होने से दक्षिण भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना पूर्व।
2. प्रायः समस्त शास्त्रकारों ने वैश्य वर्ण की राशियों के लिए दक्षिण दिग् द्वार बनाने का स्पष्ट निर्देश दिया है।
3. सर्वतोभद्र आदि गृह में चतुर्दिक द्वार की व्यवस्था उत्तम गृह हेतु प्रामाणिक वचन है।
4. प्रसिद्ध ग्रन्थ मुहूर्तचिन्तामणि में प्रतिपादित द्वार निर्धारण प्रसंग में भी दक्षिण दिग् द्वार ग्राह्य है। - मु.चि. 12/5
5. आचार्य श्रीपति ने सूर्य राशि के द्वारा द्वार निर्माण आधार को चतुर्दिक् बनाने का विधान बताया है। - मु.चि. 12/15 पीयूषधारा टीका
6. आचार्य वराहमिहिर के बृहत्संहिता में (52/68) भी दक्षिण दिग् द्वार को वैश्य वर्ण के लिए प्रशस्त बताया है जिसमें पूर्वमुख का आंगन का द्वार बताया गया है।
7. वराहमिहिराचार्य ने चारों दिशाओं में 32 द्वारों को बताया है जिसमें, दक्षिण में (चतुष्षष्ठी पद द्वारा निर्धारित) कुछ स्थानों को शुभाशुभ रूप में वर्णित किया है। यह प्रक्रिया चारो दिशाओं में बताई गई है। (बृहत्संहिता 52/71)
8. गृहप्रवेश प्रकरण के ‘‘वामरविविचार’’ प्रसंग में बताया गया है कि- ‘‘वामो रविर्मृत्युसुतार्थलाभतोऽर्के पंचमे प्राग्वदनादिमन्दिरे।’’ - मु.चि. 13/5 अर्थात् पूर्वादि क्रम से वाम रवि होता है। इस प्रकार आगे ‘‘पूर्णातिथौ प्राग्वदने गृहे शुभो’’ पद द्वारा भी चारों दिग् द्वार का उल्लेख किया गया है।
9. सूक्ष्म विचार के प्रसंग में निम्नलिखित स्थिति बताई गई है। जहाँ अशुभ फल की प्राप्ति होती है उसका त्याग करना चाहिए।
बृहद्दैवज्ञ-रंजनोक्त बृहत्संही-तोक्त फल दक्षिण
पूर्व
उत्तर मरण अनिल - अल्पपुत्र
बन्धन पूषा - भृत्य वृत्ति
भय वितथ - नीचता
पुत्रप्राप्ति बृहक्षत - पृत्र वृद्धि
धनागम यम - अशुभ
यशप्राप्ति गन्धर्व - कृतघ्न
चैरभय भृंगराज - निर्धनता
रोगभय मृग - पुत्रनाश व
बलनाश
पश्चिम
चतुष्षष्ठि पद वास्तुनर चक्र द्वारा (बृहत्संहिता 52/71, बृहद्दैवज्ञरंजन 46/365)
10. आचार्य श्रीमद्रामदीन दैवज्ञ एक स्थान पर कलश चक्र के द्वारा प्रवेश बताते हुए लिखते हैं कि ‘‘दक्षिणमुखगृहप्रेशो उत्तराफाल्गुनी चित्रे ग्राह्यः।’’ (बृहद्दैवज्ञरंजन 88/28 टीकायाम्)। इस प्रकार दक्षिण दिग् द्वार की प्राप्ति यहाँ भी होती है।
11. यदि गृह में प्रवेश व निर्गम के लिए तीन द्वार हों तो वैसी परिस्थिति में प्रधानद्वार को दक्षिणाभिमुख नहीं बनाना चाहिए, ऐसा राजवल्लभमण्डनम् में प्राप्त होता है वहीं पाठ भेद से दक्षिण के स्थान पर पश्चिम भी वर्णित है। यथा-
‘‘एकद्वारं प्राङ्मुखं शोभनं स्याच्चतुर्वक्त्रं धातृभूतेशजैने।
युग्मं प्राच्यां पश्चिमेऽथ त्रिकेषु मूलद्वारं दक्षिणे (पश्चिमे वा पाठभेदः) वर्जनीयम्।।’’
- राजवल्लभमण्डनम् 9/39
12. वास्तुमण्डनकार ने प्रवेश द्वार के विषय में जो चर्चा की है वही राजवल्लभमण्डन में किया गया है परन्तु यहाँ उत्तर दिग् का प्रवेश निर्धारण न होनें से अपूर्ण तथा अन्य प्रसंग से सन्दर्भित लगता है जैसा कि-
‘‘प्रागेव प्रतिकायको वरुणदिग्वक्त्रो भवेत् सृष्टितो
वामावर्त उदाहृतो यममुखेऽसौ हीनबाहुर्बुधैः।
उत्संगो नरवाहनाभिवदनः सृष्टया यथा निर्मितः
प्राग्वक्त्रोऽपि च पूर्णबाहुरुदितो गेहे चतुर्धा पुरे।।’’ - राजवल्ल. 1/32
यहाँ भी दक्षिण दिग् द्वार ग्राह्य है।
इस विचार-मीमांसा के आधार पर हम पाते हैं कि दक्षिण दिग् द्वार का निर्माण किया जाना चाहिए तथा वास्तुशास्त्र के अन्य निर्देशों का परिपालन भी गृहनिर्माण में अवश्य करना चाहिए। जिससे पूर्वाचार्यों के द्वारा प्रतिपादित अनुभवजन्य ज्ञान का अधिकाधिक लाभ प्राप्त हो सके।
दक्षिण दिग् द्वार की व्यावहारिक कठिनाईयाँ-
(क) दक्षिण दिग् द्वार होने से खाली स्थान की अधिकता एवं सामने द्वार होने से जल निकास में कठिनाई होती है।प्लव दक्षिण दिग् में करना पडता है।
(ख) कभी-कभी पाकशाला बनाने में कठिनता अनुभव होती है।
(ग) सीढ़ी (आरोहण) निर्माण में कदाचित् काठिन्य उत्पन्न होता है।
(घ) जल निकास को ध्यान में रखकर याम्यप्लवा भूमि दिखती है, जिसका अशुभ फल होता है।
(ङ) दीपस्थल निर्धारण में विषमता संभव होती है।
इस प्रकार अन्य भी व्यावहारिक कठिनाइयाँ संभव हो सकती हैं परन्तु इन सबका परिहार संभव है तथा मानचित्र निर्माण में हीं सबका समुचित समावेश किया जा सकता है।
दक्षिण दिग् द्वार से व्यवहारिक लाभ-
(क) प्रकाश अधिक समय तक गृह के अन्दर रहता है।
(ख) शिशिर ऋतु में शैत्य कम लगता है।
(ग) वायु का दबाव सर्वदा सामान्य रहता है क्योंकि वर्षपर्यन्त पूरवा या पश्चिम दिग् गत वायु चलता रहता है।
(घ) गृह का स्वरूप स्वयं चन्द्रबिद्ध हो जाता है, जिसकी आवश्यकता वास्तुशास्त्र में आवश्यक होती है।
(ङ) गृह के अन्तर्गत लघुवाटिका ;ळंतकमदद्ध बनाने पर सूर्यप्रकाश पूर्णरूप में प्राप्त होता है।
इस प्रकार प्रयोग के द्वारा विविध प्रकार से लाभ एवं हानि तथा शुभाशुभ की गणना स्वयं विद्वान् कर लेते हैं। ऐसे शास्त्रों को प्रायोगिक आधार पर और पुष्ट एवं परिमार्जित किया जा सकता है जिससे, गृह का मानचित्र सन्तोषप्रद संभव हो सकता है।
कुछ प्रायोगिक उदाहरण- वाराणसी (उ.प्र.) के विविध स्थान
(1) शहर का मुख्य स्थल गोदौलिया (दशाश्वमेध) का साडि़यों का विक्रय स्थल, जहाँ कुछ गृहपति वहाँ रहते हैं, उन्हें उत्तम लाभ, यश, मान, प्रतिष्ठा एवं सुख प्राप्त है।
(2) लक्सा नामक रोड में गृह भाग में हीं वणिज जाति का बड़ा व्यापार उत्तम एवं सुखदायक है।
(3) रथयात्रा से महमूरगंज नामक बाजार थोक विक्रेता के लिए महत्वपूर्ण हो चुका है।
(4) स्वयं मेरे (शोध पत्र लेखक के) कालोनी में ऐसे 30 गृह हैं जिनका दक्षिण दिग् द्वार है तथा वे सभी सम्पन्न, सुखी एवं प्रथम-श्रेणी के व्यक्ति हैं।
इस प्रकार अनेक उदाहरण हैं सर्वत्र, जिन्हें स्वयं परीक्षित किया जा सकता है और प्रायोगिक लाभ-हानि समाज के सामने उपस्थापित किया जा सकता है।
निष्कर्ष-
गृहद्वार दो प्रकार के होते हैं- प्रधान द्वार एवं अन्यद्वार।
प्रधान द्वार का निर्माण शास्त्रोचित ढंग से करना चाहिए, जो सुन्दर एवं आकर्षक हो।
प्रधान द्वार चाहरदिवारी ;ठवनदकतलद्ध में नहीं होता अपितु गृहपिण्ड ;ब्वअमतमक ।तमंद्ध में रहता है।
गृह में प्रवेश एवं निर्गमन के लिए यदि 3 से ज्यादा दरवाजा (द्वार) हों तो द्वार नियम भंग हो जाता है अर्थात् वहाँ द्वार दोष नहीं होता (बहुद्वारेष्वलिन्देषु न द्वार नियमः स्मृतः)।
पूर्वोक्त द्वार गृहपिण्ड ;ब्वअमतमक ।तमंद्ध के बाह्य दिग्भाग में ग्राह्य ह,ैं न कि गृह के अन्दर।
शास्त्रोदित परम्परा के सापेक्ष चतुर्दिग् द्वार या किसी एक दिग् में द्वार बनाया जा सकता है।
वास्तु शास्त्र के आधार पर दक्षिण दिग् द्वार बनाने में कोई दोष नहीं है।
व्यापारी (वैश्य) वर्ग दक्षिण दिग् द्वार अवश्य बनाये, जिससे अत्यधिक लाभ हो (वैश्य का निर्धारण राशियों के द्वारा होगा)।
व्यावहारिक दृष्टि से दक्षिण दिग् द्वार का गृह अधिक प्रकाशक एवं सुविधायुक्त तथा शास्त्रोचित (चन्द्रबिद्ध) संभा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें