मदिरा सवैया

घेरत है घनघोर घटा बिजुरी तन को सिहरावत है।
चातक बोलत भोर भये रति रंजित राग सुनावत है।
झींगुर शोर करे सब ओर लगे जस झाल बजावत है।
सावन में  मन भावन की बतियाँ  अति नेह बढ़ावत हैं !

2 टिप्‍पणियां:

  1. डॉ.चौबे जी
    अद्भुत रचना है।वर्षा ऋतु की रात्रिकालीन दृश्य हूबहू आंखों के सामने आ जाता है।व्यंग्य रचनाओं के दुर्व्यवस्था के विरुद्ध आग उगलने वाली लेखनी मदिर मधुर संगीत की वर्षा से इस तरह भिगो भी सकती यह कल्पना से परे है धन्यवाद।

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  2. आदरणीय नंदकिशोर तिवारी जी
    प्रणाम
    सारगर्भित टिप्पणी के लिए आभार

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