अगर गदहे नही होते


अगर गदहे नही होते तो
मूर्खो की महत्ता को
कोई विद्वान ज्ञानी जिंदगी भर जान न पाते
अगर गदहे नही होते तो
सब विद्वान हो जाते
हमारी मूर्खता को आप भी
पहचान न पाते

अज्ञानता का माप भी बेमेल हो जाता
परिश्रम लाख करता हो मगर यदि फेल हो जाता
जमकर डाँट और फटकार घूसा लात न सहता
तो कोई बाप अपने बेटे को गदहा नही कहता।
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हमारे मन के मनसूबे तो
अपने आप ढह जाते
हमारा स्वर कोई सुनता नही
चुपचाप रह जाते
अगर गदहे नही होते
जरूरत आन पड़ती तो
कहाँ से हम किसी को भी
अपना बाप कह पाते
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कुछ ऐसी है गधहो को भी सम्मान देती है
कुछ ऐसी है कि उनपे अपनी जान देती है
मेरी वाली मुझको देख कर मुंह फेर लेती है
हलाकि धोबन अपने गदहे को पहचान लेती है
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अगर गदहे नही होते तो
संसद में कोलाहल
गर्दभी क्रन्दन नही होता
सियासत में किसी चापलूस
का वन्दन नही होता
छछुन्दर के भी माथे पर
लगा चन्दन नही होता
नर्तकियों का अमरीका में
अभिनंदन नही होता
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अगर गदहे नही होते
तो मंचो पर
लतीफे कौन सुनता
उसी को हास्य कविता मानकर सिर कौन धुनता
फिर तालियों का भाव भी
मन्दा नही होता
पवित्र मंच कविता कभी गन्दा नही होता

1 टिप्पणी:

  1. सही बात सही बात भैया अगर गदहे नही होते तो मंचो पर लतीफे कौन सुनाता

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