बजार से लौट कर किराये के घर में गृहप्रवेश करती हुयी बीबी ने झोला किनारे पटका और साडी की पल्लू को कमर पर लपेटतीे हुई अबोध पति के समक्ष प्रश्नों के गोले दागने शुरू किये। यही है अच्छे दिन ? यदि इसे ही अच्छे दिन कहते है तो वो बुरे दिन क्या बुरे थे। जब सबकी हान्डी मे दाल गल जाती थी, प्याज काटने पर आॅखों में आॅसू आते थे खरीदने पर नही, तेल खाओ या लगाओ अपने औकात में रहता था, पाॅच रूपये में प्लेट फार्म टिकट मिल जाता था। बीबी को विपक्ष की तरह अकारण अक्रामक भूमिका में देखकर पति ने इस संकट से निजात पाने के लिए संकटमोचन का सुमिरन करते हुए बचाव की मुद्रा में कहा - भाई अच्छे दिन तो धीरे धीरे आते आते आयेंगे। अब अच्छे दिन साले साली या ससुराल वालों की तरह निर्लज्ज तो है नही कि अचानक आ धमके। जैसे एक समधी की नजर दूसरे समधी की खूंटे पर बंधी दुधारू भैंस पर होती है। ठीक वैसे ही बीबी की नजर पति के वाक्य पर होती है। उधर दुधारू भैंस न मिली तो समधी रूठा, इधर बीबी के मैके के विषय में दुधारू शब्द न निकले तो बीबी रूठी, अब दोनो को मनाने का सिलसिला महिनों चलता है। समधी और बीबी में एक अन्तर होता है समधी मान भी सकता है।
पत्नी जिसे खाली समझती है पति अपने उसी दिमाग वाले फ्लोर के शब्द कोष से मनाने के लिए कुछ मधुर शब्द खोज ही रहा था कि दुसरा हमला हुआ। सुनो जी! मैं तो उसी दिन से सोच रही थी कि भाषण में ’’न खउंगा न खाने दूंगा’’ का क्या मतलब हो सकता है लेकिन बात अब समझ मे आयी है। अरे तुम्हें न खाना है मत खाओ हमें तो जीने के लिए खाने दो। ताकि अच्छे दिन के लिए फिर बटन दबाने हेतु जीवित रहें। आखिर इतने शौचालयों और स्मार्ट शहरों की क्या उपयोगिता जब खाने ही नही दोगे।
अच्छे दिन की टीआरपी गिर रही है। आखिर किस के अच्छे दिन आये। गंगा, गोहत्या, घुसपैठ, कश्मीर, बेरोजगारी, किसान, नारी सुरक्षा, भरतीय रेल, धार्मिक उन्माद किसी के भी तो नही आये। चिराग लेकर ढूढा तो केवल चिराग के पापा के अच्छे दिन आये या तो फिर सास भी कभी बहु थी की बहु के अच्छे दिन आये। तेल प्याज दाल आटा का भाव पूछने के बाद मुंह लटकाये घर पहुचों तो पडोसन से मन की बात कहने का मन नही करता। पता नही लोग रेडियो पर कैसे कर लेते हैै। ऐसे अच्छे दिन से बुरे दिन क्या बुरे थे ? और नही तो क्या।
पत्नी जिसे खाली समझती है पति अपने उसी दिमाग वाले फ्लोर के शब्द कोष से मनाने के लिए कुछ मधुर शब्द खोज ही रहा था कि दुसरा हमला हुआ। सुनो जी! मैं तो उसी दिन से सोच रही थी कि भाषण में ’’न खउंगा न खाने दूंगा’’ का क्या मतलब हो सकता है लेकिन बात अब समझ मे आयी है। अरे तुम्हें न खाना है मत खाओ हमें तो जीने के लिए खाने दो। ताकि अच्छे दिन के लिए फिर बटन दबाने हेतु जीवित रहें। आखिर इतने शौचालयों और स्मार्ट शहरों की क्या उपयोगिता जब खाने ही नही दोगे।
अच्छे दिन की टीआरपी गिर रही है। आखिर किस के अच्छे दिन आये। गंगा, गोहत्या, घुसपैठ, कश्मीर, बेरोजगारी, किसान, नारी सुरक्षा, भरतीय रेल, धार्मिक उन्माद किसी के भी तो नही आये। चिराग लेकर ढूढा तो केवल चिराग के पापा के अच्छे दिन आये या तो फिर सास भी कभी बहु थी की बहु के अच्छे दिन आये। तेल प्याज दाल आटा का भाव पूछने के बाद मुंह लटकाये घर पहुचों तो पडोसन से मन की बात कहने का मन नही करता। पता नही लोग रेडियो पर कैसे कर लेते हैै। ऐसे अच्छे दिन से बुरे दिन क्या बुरे थे ? और नही तो क्या।
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