वाराणसी में कर्फ्यू


कल शाम को सुनसान सडक पर मुझे अचानक कर्फ्यू  मिला। बिल्कुल नये नये ससुराल गये दामाद की तरह। अभी वह लगने ही वाला था कि मैंने पूछ लिया - श्रीमान कर्फ्यू  भाई  ! तुमको तो हमलोगों ने वर्षो पहले बहुत गहरे दफना दिया था फिर तू जिन्दा कैसे हो गया। कर्फ्यू  ने निर्विकार भाव से कहा- जब भी किसी शान्त शहर में किसी या़त्रा या रैली के दौरान अराजकतत्वों के हाथों में प्रतिशोध के पत्थर आ जाते है, जब अमन चैन के कानों में जिन्दाबाद मुर्दाबाद के नारों की आवाज टकराती है। जब जिन्दगी शैतानियत का सन्देश लेकर आती है। नगर की रफ्तार थम सी जाती है। चहल पहल, आनन्द कोसो  दूर भग जाता है तब उस शहर में कफ्र्यू लग जाता है।
          मैने कहा यार कर्फ्यू  तू जब लगता है तब दुकानों में ताले पड जाते है अच्छे अच्छों को रोटी के लाले पड जाते है। कहकहे सांय सांय करते हुए विरानी में ढलते है। बच्चों को दूध तक नही मिल पाता और न घर में चूल्हे जलते है। रैलियों में नारे बाप लगाते है और सजा नन्हें मुन्ने बच्चे पाते है। फिर छत से शान्ति से गुटर गूं करने वाले कबूतर न जाने कहाॅ उड जाते है। कोई सन्त, महन्त, पादरी, पीर, फकीर आखिर इन्हें क्यों नही समझाता है कि धर्म सम्प्रदाय देवी देवताओं को तो शान्ति और इन्सानियत से प्यार है तो फिर सम्मानित शहर के होठों से खिलखिलाती हंसी छिनने का इनको क्या अधिकार है ?
 कर्फ्यू  रहस्यमय तरीके से मुस्कुराते हुये बोला- हे इन्सानियत के अलमबरदार बेवकूफ आदमी, जब किसी पार्टी, संगठन या प्रभावशाली व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा बुद्धि की अनुगामी हो जाती है। प्रभाव जब प्रदर्शन का रूप धर लेता है। आस्था दिलों को छोडकर जब सडक पर उतरकर आन्दोलन करने लगती है तब तब मेरे आने की सम्भावना बढ जाती है।
             मैने कहा भाई कर्फ्यू   जो उपद्रव मचाने के लिए सबसे पहले पत्थर चलाते है क्या केवल वही अपनी पीठ पर लाठी खाते है ? अरे हमने तो देखा है कि असली कलाकार तो साफ-साफ बच जाते है और सीधे साधे चिल्लाते हुए अपनी पीठ सहलाते है और कुछ तो तेरे आने के पूर्व ही बेहोशी की हालत में चिकित्सालय की शरण में पाये जाते है। अब तू कान खोल कर सुन ले, कोलाहलों की दीवार पर अफवाहों की ईमारत खडी हो नही सकती। चाहे इसे बनाने वाला कोई भी हो ये हमारी आपसी सूझ बूझ से बडी हो नही सकती। कर्फ्यू  तू चाहे कितनी भी कोशिश कर ले बाद में पछताओगे। तुलसी कबीर के शान्तिप्रिय शहर में दो घन्टे से ज्यादा टिक नही पावोगे।
         

4 टिप्‍पणियां:

  1. डॉ. अनिल चौबे जी
    आपने कर्फ्यू के कारणों का ठीक पड़ताल किया।यह कुछ अराजक लोगों के गलत नीयत का ही उपज होता है।मुझे स्मरण है जब हम लोग वाराणसी मे पढते थे तो उस समय कर्फ्यू लगा था।उसके १२ से १५ सालों के बीत जाने पर इसकी सुगबुगाहट सुनी गई थी।यह काल अत्यन्त कष्टकारी होता है।

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  2. पीठ पर लाठियों की पीर लिए, मन में वेदना गंभीर लिए
    स्वयं के विश्वास से जो छल जाता है, क्षुब्ध होकर खाली हाथ मल जाता है
    रोता है अंतर विलाप लिए, मन में वह भारी संताप लिए
    न्याय की एक मद्धम ज्योति जल जाती है, भीड़ रूपी रोशनी निकल जाती है

    अपनी खामियों की बखिए बचाए रखने को, असंतोष की आग सुलगाए रखने को
    सत्ता लोलुपों का दाँव चल जाता है, कर्फ्यू तब कब्र से निकल जाता है

    एक पुराना शेर है...
    सियासत को लहू पीने की लत है, बगरना चमन में सब खैरियत है।।

    डॉ. चौबे जी,
    लेखनी में धार है, व्यंग्य उच्चकोटि का है. पर पता नहीं एकतरफा क्यों लग रहा है..

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  3. आदरणीय सुनील जी
    प्रणाम
    इस लेख को लिखने वाला घटनाओं का प्रत्यक्ष दर्शी है ! आप को एक तरफा लग रहा है तो हम क्या कर सकते है ! फ़िलहाल समुचित समीक्षा के लिए !
    आभार और नमन
    अगली टिप्पणी की प्रतीक्षा तक

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