सोचिये क्या गुजर रही होगी उस लेखक पर जिसे आज तक कोई पुरस्कार नही मिला। वह भगवान से रोज मनाता होगा कि हे भगवान ’’अगले जनम मोहे लेखक न करियो’’। समाज उसे कितनी हेय दृष्टि से देख रहा होगा। कागज काली करता रहता है पता नही क्या लिखता है बेवकूफ कही का, लौटाने के नाम पर कुछ भी तो नही है इसके पास। पुरस्कार के नाम पर कुछ होता तो भले मिलते समय कोई न जान पाया लेकिन आज लौटाता तो लगभग सभी जान जाते। इसे तो लेखक समाज को अपनी विरादरी से कुजात छाॅट देना चाहिए। लेखक दल हमारा हुक्का पानी न बन्द कर दें, इसलिए हे पुरस्कार विधाताओं, निर्माताओं, एवं प्रदानकर्ताओं आपसे सविनय निवेदन यह है कि लौटाने के लिए ही सही एक पुरस्कार तो दे दे बाबा। ये गर्दन तेरे आगे हमेशा झुकी रहेगी। हमने जिस थोक भाव से साहित्य रचा है उसका असली भाव रद्दी वाला ही जानता है। फिर भी हम ये खुब अच्छी तरह जानते है कि अकादमी का सरकार से कुछ लेना लादना नही है पर हम ये भी जानते है कि सरकार बदलते ही नितियाॅ कुर्सियाॅ और पुरस्कार की फाइले बदलते देर नही लगती। थोडा थोडा यह भी समझ गये है कि पुरस्कार मिलता नही लिया जाता है तमाम जगह दण्डवत लेट कर चरण चूमना पडता है। कितनों की विरदावलियाॅ गानी पडती है। ताली बजाने वाले का भी जुगाड करना पडता है। हालाकि अब पुरस्कारों के साथ पेंशन जुड गया है अतः इसका त्याग करना दधिचि के अस्थि त्याग जैसा ही है फिर भी हम पुरे होशो हवास में निरपेक्षवाद को साक्षी मानकर कसम खाते है कि आप हमें पुरस्कार देकर देखंे हम लौटा कर दिखा देंगे। यह काम हम सेल्फडिपेन्ड आत्मा की आवाज पर करेगे। इसमें किसी अन्य की आत्मा या पुरे शरीर का कोई योगदान नही होगा। हमारे इस क्रान्तिकारी कदम उठाते ही सोशल मिडिया पर जोर शोर से चर्चा होगी। हम जब टीवी के सामने रोयेंगे तो मगरमच्छ माथा पीट लेगा। फिर दाल की कीमत की तरह हमारा भाव भी बढ जायेगा। हम यह कहते हुये भी पुरस्कार लौटा सकते है कि हमसे ज्यादा इस सम्मान का हकदार हमारा सगा बेटा है। चाहे तो डीएनए टेस्ट करालें। ये पुरस्कार ही तो है जो सरस सलिल टाइप के लेखक को भी स्थापित साहित्यकार बना देता है। अब तो बिना पुरस्कार लौटाये कोई साहित्यकार मानने को तैयार नही है इसलिए लौटाने के लिए ही सही एक पुरस्कार तो इस लेखक के कटोरे में ढाल दे बाबा ।
लौटाने के लिए ही सही एक पुरस्कार तो दे दे बाबा।
सोचिये क्या गुजर रही होगी उस लेखक पर जिसे आज तक कोई पुरस्कार नही मिला। वह भगवान से रोज मनाता होगा कि हे भगवान ’’अगले जनम मोहे लेखक न करियो’’। समाज उसे कितनी हेय दृष्टि से देख रहा होगा। कागज काली करता रहता है पता नही क्या लिखता है बेवकूफ कही का, लौटाने के नाम पर कुछ भी तो नही है इसके पास। पुरस्कार के नाम पर कुछ होता तो भले मिलते समय कोई न जान पाया लेकिन आज लौटाता तो लगभग सभी जान जाते। इसे तो लेखक समाज को अपनी विरादरी से कुजात छाॅट देना चाहिए। लेखक दल हमारा हुक्का पानी न बन्द कर दें, इसलिए हे पुरस्कार विधाताओं, निर्माताओं, एवं प्रदानकर्ताओं आपसे सविनय निवेदन यह है कि लौटाने के लिए ही सही एक पुरस्कार तो दे दे बाबा। ये गर्दन तेरे आगे हमेशा झुकी रहेगी। हमने जिस थोक भाव से साहित्य रचा है उसका असली भाव रद्दी वाला ही जानता है। फिर भी हम ये खुब अच्छी तरह जानते है कि अकादमी का सरकार से कुछ लेना लादना नही है पर हम ये भी जानते है कि सरकार बदलते ही नितियाॅ कुर्सियाॅ और पुरस्कार की फाइले बदलते देर नही लगती। थोडा थोडा यह भी समझ गये है कि पुरस्कार मिलता नही लिया जाता है तमाम जगह दण्डवत लेट कर चरण चूमना पडता है। कितनों की विरदावलियाॅ गानी पडती है। ताली बजाने वाले का भी जुगाड करना पडता है। हालाकि अब पुरस्कारों के साथ पेंशन जुड गया है अतः इसका त्याग करना दधिचि के अस्थि त्याग जैसा ही है फिर भी हम पुरे होशो हवास में निरपेक्षवाद को साक्षी मानकर कसम खाते है कि आप हमें पुरस्कार देकर देखंे हम लौटा कर दिखा देंगे। यह काम हम सेल्फडिपेन्ड आत्मा की आवाज पर करेगे। इसमें किसी अन्य की आत्मा या पुरे शरीर का कोई योगदान नही होगा। हमारे इस क्रान्तिकारी कदम उठाते ही सोशल मिडिया पर जोर शोर से चर्चा होगी। हम जब टीवी के सामने रोयेंगे तो मगरमच्छ माथा पीट लेगा। फिर दाल की कीमत की तरह हमारा भाव भी बढ जायेगा। हम यह कहते हुये भी पुरस्कार लौटा सकते है कि हमसे ज्यादा इस सम्मान का हकदार हमारा सगा बेटा है। चाहे तो डीएनए टेस्ट करालें। ये पुरस्कार ही तो है जो सरस सलिल टाइप के लेखक को भी स्थापित साहित्यकार बना देता है। अब तो बिना पुरस्कार लौटाये कोई साहित्यकार मानने को तैयार नही है इसलिए लौटाने के लिए ही सही एक पुरस्कार तो इस लेखक के कटोरे में ढाल दे बाबा ।
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