डाॅ कलाम साहब ने एक बहुत बढिया बात कही थी।
मैंने एक चिडिया पाली, वह उड गई।
गिलहरी पाली वह भाग गई।
फिर मैंने एक पेड लगाया तो,
दोनों वापस आ गई। वैसे ही गाॅव के आदमी की थाली में दाल थी उसे महंगाई पी गई। उसकी रोटी मौसमों की बेवफाई खा गई। फिर पंचायत चुनाव आया उसकी थाली में ये दोनों चीजें वापस आ गई, साथ में दारू की बोतल और नमकीन की पाकेट भी आ गई। हे भगवान ये पंचायत चुनाव सालों साल क्यों नही चलते। इसके बीतते ही गाॅव कितना सुना सुना लग रहा है। गोहरी लगाती महिला के भी लपक कर पाॅव छूने वालो का तांता लगा रहता था। महिला उम्मिदवार का पति ’’नार्यास्तु यत्र पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’’ वाली फीलिंग के साथ सबसे सम भाव से मिल रहा था। फिर भी मतदान के दिन मतदान केन्द्र पर कई लाठी उसकी पीठ पर गिरी थी। सारे प्रत्याशी जिस तेज गति से विकास का दावा कर रहे थे ऐसा लगता था अब ये गाॅव को एकदम लन्दन बना कर मानेगें। इस बार का चुनाव लोगों के लिए कल्पवृक्ष की तरह था जो माँगो तुरन्त हाजिर। थोडा सा आदमी बिमार पडे नही कि कई लोग ईलाज कराने को तैयार। आदमी तरसता था बिमार पडने को और यदि सौभाग्य से मर गया तो घर के बाकी सदस्यों की तो चकाचक। चार की जगह चैबीस कन्धा देने को तैयार । जीवित आदमी मरने वाले की तरीफ करे वाह क्या नसीब पाया है पंचायत चुनाव के वक्त ही मर गया। शव या़त्रा भी कितनी शानदार है। वो भी मुफ्त की। इन सारी सेवाओं के प्रति उम्मिद्वारों के मन में रति भर भी लालच नही अब लाभर्थी यदि इन सारी निस्वार्थ सेवाओं के बदले अपने पुरे परिवार का वोट उसे दे तो वह संकोचवश उसे मना भी तो नही कर सकता। जब से राजनीति सबसे सरल रोजगार हो गई है तबसे हर ऐरा गैरा अपना भाग्य आजमा रहा है। ये जो जनता है वो भी अबतक मतदान करते करते अपने मत की कीमत समझ गई है और अब वह उसे मत दान देने से पहले पुरा पुरा वसूल कर लेना चाहती है। जनता जानती है कि जब तक काली स्याही अंगुली में नही लगी है प्रधान जी तब तक ही पकड में है। अभी जितनी रोशनी चाहिए लेलो बाद में सूरज भी पहले इनके दवाजे पर ही उगेगा। जनता जानती है प्रधान कोई बने क्या फरक पडता है। गाडियाॅ वही रहती है केवल सवारियाॅ बदल जाती है।
मैंने एक चिडिया पाली, वह उड गई।
गिलहरी पाली वह भाग गई।
फिर मैंने एक पेड लगाया तो,
दोनों वापस आ गई। वैसे ही गाॅव के आदमी की थाली में दाल थी उसे महंगाई पी गई। उसकी रोटी मौसमों की बेवफाई खा गई। फिर पंचायत चुनाव आया उसकी थाली में ये दोनों चीजें वापस आ गई, साथ में दारू की बोतल और नमकीन की पाकेट भी आ गई। हे भगवान ये पंचायत चुनाव सालों साल क्यों नही चलते। इसके बीतते ही गाॅव कितना सुना सुना लग रहा है। गोहरी लगाती महिला के भी लपक कर पाॅव छूने वालो का तांता लगा रहता था। महिला उम्मिदवार का पति ’’नार्यास्तु यत्र पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’’ वाली फीलिंग के साथ सबसे सम भाव से मिल रहा था। फिर भी मतदान के दिन मतदान केन्द्र पर कई लाठी उसकी पीठ पर गिरी थी। सारे प्रत्याशी जिस तेज गति से विकास का दावा कर रहे थे ऐसा लगता था अब ये गाॅव को एकदम लन्दन बना कर मानेगें। इस बार का चुनाव लोगों के लिए कल्पवृक्ष की तरह था जो माँगो तुरन्त हाजिर। थोडा सा आदमी बिमार पडे नही कि कई लोग ईलाज कराने को तैयार। आदमी तरसता था बिमार पडने को और यदि सौभाग्य से मर गया तो घर के बाकी सदस्यों की तो चकाचक। चार की जगह चैबीस कन्धा देने को तैयार । जीवित आदमी मरने वाले की तरीफ करे वाह क्या नसीब पाया है पंचायत चुनाव के वक्त ही मर गया। शव या़त्रा भी कितनी शानदार है। वो भी मुफ्त की। इन सारी सेवाओं के प्रति उम्मिद्वारों के मन में रति भर भी लालच नही अब लाभर्थी यदि इन सारी निस्वार्थ सेवाओं के बदले अपने पुरे परिवार का वोट उसे दे तो वह संकोचवश उसे मना भी तो नही कर सकता। जब से राजनीति सबसे सरल रोजगार हो गई है तबसे हर ऐरा गैरा अपना भाग्य आजमा रहा है। ये जो जनता है वो भी अबतक मतदान करते करते अपने मत की कीमत समझ गई है और अब वह उसे मत दान देने से पहले पुरा पुरा वसूल कर लेना चाहती है। जनता जानती है कि जब तक काली स्याही अंगुली में नही लगी है प्रधान जी तब तक ही पकड में है। अभी जितनी रोशनी चाहिए लेलो बाद में सूरज भी पहले इनके दवाजे पर ही उगेगा। जनता जानती है प्रधान कोई बने क्या फरक पडता है। गाडियाॅ वही रहती है केवल सवारियाॅ बदल जाती है।
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