उल्लुओं का अधिवेशन


सम्मानित शहर के बीचो बीच स्थित एक सभागार में धिरे धिरे तरह तरह के उल्लू एक़त्रित हो रहे थे। एक ही जगह पर एकसाथ सामाजिक राजनैतिक साहित्यिक आदि क्षेत्रों से आये इन प्रतिष्ठित उल्लुओं को देखकर आश्चर्य हुआ। पूछने पर पता चला कि उल्लुओं का वार्षिक अधिवेशन है अतः हर उल्लू अपने अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहा है। देखते ही देखते पुरा सभा हाल   मूंछ वाले, पूंछ वाले, सदरी और टोपी वाले उल्लुओं  से खचाखच  भर गया । दो तीन फीमेल उल्लू भी थी।  जिनकी साज सज्जा इतनी मनोहारी थी कि यदि उल्लू देख सकते तो अपलक इन्हें ही देखते रहते।
                 एक नवोदित उल्लू जो कोने में बैठा था उसने बताया कि हम अन्धकार के समर्थक प्रजाति के लोग है बेशक हमें दिन में दिखाई न पडता हो लेकिन माता लक्ष्मी को पीठ पर लाद कर ढोते रहने के चलते इस युग में भी हमारी प्रासंगिकता को नकारा नही जा सकता। हमलोग अपनी उपयोगीता को सिद्ध करने के लिए ही इस महाअधिवेशन में एक़ित्रत हुए है। तबतक ललाट पर दिव्य चन्दन लगायें, मुख में चेला द्वारा प्रदत्त मगही पान दबायें, लकालक धोती कुर्ते में एक विद्वान टाईप के उल्लू का सभाकक्ष में
प्रवेश हुआ । एकदम खानदानी उल्लू की तरह । सारे उल्लू लपक लपक के उस दिव्यात्मा उल्लू के चरण छूने लगे।
चरण छू कर भी उल्लू बनाया जाता है पहली बार देखने को मिला। पता चला उल्लुओं के अधिवेशन की अध्यक्षता इन्हीं को करनी है।
    आप भी सोच रहे होंगे किस पट्ठे से पाला पड़ा है , तो साहब ! उल्लुओं पर लिखना कम उल्लूपना नही है। आईये हम सीधे अध्यक्षीय सम्बोधन की ओर चलते है क्यों की छोटे मोटे उल्लू जो दरी बिछाने से लेकर निमन्त्रण बांटते हुए पोस्टर चिपकाते रहे उनको लिफाफा तो मिला लेकिन माईक मंच नसीब न हो सका। वो अगले साल का आश्वासन पाकर ही खुश होकर उल्लू बने रहे।
अध्यक्ष जी ने तमाम उल्लुओं को सम्बोधित करते हुए कहा- मेरे स्वजातीय बन्धुओं , उल्लुओं के इस महान अधिवेशन में जिन लोगों ने तन मन और धन से हमारा सहयोग किया हम उनका आभार ज्ञापित नही करेंगे क्यों कि वे इसी के लायक है। हमरा उल्लू समाज भगवान से भी बड़ा है। भगवान चाह कर भी किसी उल्लू को आदमी नही बना सकता और हम हर आदमी को उल्लू बना सकते है।
देश के उल्लुओं एक हो जाओं हर क्षेत्र में हमारे पट्ठे है। कृशन चन्दर नामक लेखक ने तो गदहों को भी साहित्य में स्थान दिलाया है तो क्या हम किसी उल्लू को साहित्य में स्थापित नही कर सकते ? इस अधिवेशन के जो महासचिव है वो हमारे परम मित्र है। हलाकि लोग इन्हें काठ का ही मानते है
। कुछ नवोदितों ने इनकी जगह हथिया ली है यह घोर चिंतन का विषय है। लोग दल तक बदल लिए ये अपना कोटर तक नही बदल पाये। आप जैसे लोग न होते तो हम जैसे उल्लओं को कौन पूछता। हमें भी वंशवाद की तरह उल्लूवाद को प्रोत्साहित करना होगा।अपने अपने उल्लू सन्तानों को मरने से पहले स्थापित कर देना होगा ताकि मरने के बाद हमारी निजी सन्तानें हमें एकदम से उल्लू ही समझती न रह जाये। जब एक ही उल्लू काफी है बर्बाद गुलसिताँ करने को , तो हम सब तो काफी संख्या मेंं एकत्रित है। सोना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है लेकिन सरकारी कर्मचारी रोज हमारे अधिकार का हनन कर रहे है। सरकार सोने का मूल्य एक बार निश्चित रूप से निर्धारित कर दे। तब हम चैन से सो पायें। फ़िलहाल एक बात तो स्पष्ट होगयी है कि हम उल्लुओं ने साहित्य के क्षेत्र में अपना उल्लू सीधा कर लिया है।

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