मीरजापुर जिले के तेतरिया गाॅव में पं भोलानाथ उपाघ्याय के घर जनवरी 1940 में एक भोले भाले लडके ने जन्म लिया । जो कालान्तर में ’’कौशिक’’ रवीन्द्र उपाध्याय के नाम से साहित्य जगत में सुविख्यात हुआ। गौरवर्ण , पीछे तक लटकते सघन धवल कुंचित केश राशि पन्त जी के केशो से प्रतिष्पर्धा करते थे। नील आभायुक्त आॅखें, पान चर्वण से लाल हुये अधर अपने को टेसु या पलाश पुष्प का उचित उपमान मानते थे। नबाबो जैसी नफासत और नजाकत जैसे विरासत में मिली हो। मिजाज के प्रतिकूल घर में पर्दे भी हिले तो उनकी खैर नही। स्वाभिमान को थोडी सी भी खरोंच लगी नही की आपे से बाहर। विशाल काया में हृदय भी इतना विशाल किन्तु सहज और सरल की सामने वाले ने हाथ जोडे नही की नवनीत की तरह तुरन्त पिघल गये। काशी की संस्कृति में अडियो का अपना विशेष महत्व है। जिसमें जयप्रकाश पोई की चाय की दुकान साहित्यिक राजनैतिक अडिबाजों के लिए एक सुपरिचत अडी है। इसी अडी का ईशान कोना सर्वदा कौशिक जी के लिये आरक्षित रहता था। समक्ष होते थे पं श्री बुद्धिसागर तिवारी,अगल बगल समाजवादी विचार धारा के कवि डा सरोज, सलीम शिवालवी, के इन्द्रजित, आचार्य पं भद्र पाठक, और हमारे जैसे दो चार नवोदित। मौसम कोई भी हो यहाॅ उनका होना तय होता था। या तो अस्सी चैराहे पर शास्त्री जी की पान की दुकान पर पीपल के पेड के नीचे विराजमान दिख जाते थे। मेरा पहला परिचय होली के ऐतिहासिक मंच पर हुआ था ! उनके शब्दों का निहतार्थ आज समझ में आ रहा है। जब हमारे बीच कौशिक जी नही है।
’’रूप शतकम’’ फिर सुमन आहत हुआ’’ और ’’सजल आॅखों के कोने से’’ तीन संग्रह ’’कौशिक’’ रवीन्द्र उपाध्याय के प्रकाशित है। कौशिक का कवि मन हमेशा छन्दों के अनुशासन, गीतात्मकता, सौन्दर्य बोध और प्रेम की अभिव्यक्ति का अनुगामी रहा है। सौन्दर्याधायक शब्द , प्रेम और रूप को खास अहमियत देते है कौशिक जी अपनी रचनाओं में और जीवन व्यवहार में भी। आचार्य विश्वनाथ रसात्मक वाक्य को काव्य मानते है। पं राज जग्गनाथ रमणीय अर्थ के प्रतिपादक शब्द को काव्य मानते है। तो कौशिक रूप को काव्य मानते है-
रूप को भूप सिर नवता है
रूप के गीत कवि भी गाता है
रूप और काव्य दो नही होते
रूप ही काव्य कहा जाता है।।
इनका रूप दर्शन समाजिकता से जुडकर वृहदाकार ले लेता है। कौशिक जी का सौन्दर्यबोध यथार्थ के धरातल पर टिका है। जिसमें जीवन और जीजीविषा का समन्वय है। इतिवृत एंव प्रकृति इनके काव्य की पृष्ठभूमि है। कवि का मन सौन्दर्यतत्व की अराधना में प्रेम की मुरली बजाता है, राधा कुंजगली से निकल कर यमुना तट चल देती है और सारा वातावरण कविता का मधुवन हो जाता है।
कंकरीट का जंगल कभी मोहित न कर सका। शहर के माॅल बर्गर संस्कृति से दूर गाॅव में धान की गन्धों नहाई चान्दनी कवि मन को अत्यधिक आकर्षित करती रही। शहर में लम्बे समय तक प्रवास के बावजूद गाॅव से लगातार रिश्ता बनाये रखे। इसलिए ग्रामीण मिट्टी की सोन्धी गन्ध जो इनके गीतों रची बसी थी चह किसी क्षेत्र विशेष की न होकर भरत के समस्त गाॅव के खेत खलिहानो का प्रतिनिधित्व करती है।
कौशिक जी काव्यगत वैचारिकता समाज और राष्ट्र के प्रति गम्भीर दायित्व बोध कराती है। उसे जीव जगत और पर्यावरण की चिन्ता है। स्वार्थी और खालीपन से कवि चन्तित रहा है-
वायु संकट ग्रस्त कौशिक जल यहाॅ धातक हुआ है।
अथवा
आस की बात क्या विश्वास तार तार हुआ
मात्र धरती नही आकाश भी बिमार हुआ।।
हम आजादी के बाद इतने अधिक आजाद हो गये की अपने अपने मतलब सिद्ध करने में लगे रहे चुनाव संदर्भ का ये शेर देखिये -
मत माॅग रहे है मगर तम बाॅट रहे है।
जिस ढाल पर खडे है उसे काट रहे है।।
बढती हुयी मंहगाई , असंतोष और आधुनिकता ने मानव के भीतर एक अज्ञात भय का स्थान बना लिया है।झुठ सच्च का निर्णय कठिन हो गया है। सरकारी ,समाजिक संस्थायें प्रयास करती रही । समाज लाभान्वित नही हो सका । आम आदमी का संर्घष य़त्र तत्र व्यंग्य के रूप में इनकी कविताओं में दृष्टिगोचर होता है -
भेडिये के हौसले अब पस्त होने चाहिए
इस तरह माकूल बन्दोबस्त होने चाहिए
बेवजह जो बेगुनाहों को झपट लेते यहाॅ
दीखते असमर्थ जो अपदस्थ होने चाहिए
कहन का जो सादगीपन था कौशिक जी की विशेषता थी। बनारसी अखडपन मौज मस्ती तो था ही बाद के दिनों में कविसम्मेलों में अध्यक्षता से नीचे कुछ भी स्वीकार नही रहा। बनारस और बनारस की गली को लेकर लम्बी गजले काफी चर्चित हुई-
तुलसी, कबीर, भरतेन्दु, प्रेमचन्द, उग्र
है प्रसाद का संसार बनारस की गली में।
बेढबजी, बेधढक और चोंच रूद्र भइयासब हास्य के आगार बनारस की गली में।।
कौशिक जी गीत गजलों को अनुशान में बान्धने में सिद्धहस्त थे। उनके वाक्य विन्यास लययुक्त ,संतुलित होते थे। कथ्य, तथ्य शिल्प प्रवाह,शब्द योजना सभी दृष्टि से गीत गजल में उनहें महारत हासिल थी। तत्सम का प्रयोग इतनी सावधानी से करते थे कि रचना की सुन्दरता बढ जाती थी।’’चैत चाॅंदनी गीत गुलाब’’ जैसा प्रतिष्ठित कार्यक्रम का वर्षो अनवरत कुशल संयोजन करते रहे। गजल को माशुका के लबो रूखसार से बाहर निकालने का काम हिन्दी में दुष्यन्त के बाद रंग जी, नीरज जी, विकल साकेती आदि ने किया। कौशिक रवीन्द्र उपाध्याय उसी परम्परा के कवि है। आज भी अस्सी के जयप्रकाश पोई की दुकान पर इस साहित्यिक अडीबाज का कोना खाली देखकर लगता है। ’’कौशिक’’ गुरू बहुत जल्दी चले गये।।
सुमन निष्प्राण लगते है कली अच्छी नही लगती
बिना तेरे हवा जो भी चली अच्छी नही लगती।
जहाॅ भी दृष्टि जाती है उदासी ही उदासी है
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