दादुर पपीहा मोर करने लगे है शोर
झूले पर चातक की चाह झूल गयी है।।
गोद में पयोद के ही बैठ कर चंचला भी
प्रकृति से अनुबन्ध भी कबूल गयी है।।
गरज रहें हैं घन घोर घन घेर घेर
द्रुम लता धरती कीआह भूल गयी है।।
बरसात होने लगी झम झमा झम झम
नदी नद पोखरों की साँस फूल गयी है।
झूले पर चातक की चाह झूल गयी है।।
गोद में पयोद के ही बैठ कर चंचला भी
प्रकृति से अनुबन्ध भी कबूल गयी है।।
गरज रहें हैं घन घोर घन घेर घेर
द्रुम लता धरती कीआह भूल गयी है।।
बरसात होने लगी झम झमा झम झम
नदी नद पोखरों की साँस फूल गयी है।
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