आज का गीत -87
उप्र की राजधानी लखनऊ के पास बैसवाड़ा क्षेत्र साहित्यिक रत्नों की खान है। खड़ी बोली के उत्थान के समय इस छोटे-से अंचल में एक साथ
इतनी विभूतियाँ उत्पन्न हुई कि इस धरती को रत्नगर्भा कहा जाने लगा । निराला से लेकर नन्द दुलारे वाजपेयी और राम विलास शर्मा तक एक से एक बड़े नाम वहीँ से निकले। वहीँ से चमकीं सुमित्रा कुमारी सिन्हा (1913 -1994 ) ,जिन्होंने एक ओर स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी की, तो दूसरी ओर हिंदी गीत की धारा को प्रवाहित रखने में ऐतिहासिक योगदान किया। उनका जन्म फैज़ाबाद में विजयादशमी के दिन हुआ था और विवाह नईमपुर,उन्नाव के जमींदार परिवार में हुआ था ,जहाँ उन्हें अपने साहित्यिक सृजन को विस्तार देने का अवसर मिला। यह उस समय की रीति-रिवाज के विपरीत था ,लेकिन चूँकि परिवार में साहित्य-संगीत-कला का सम्मान था ,इसलिए सुमित्राजी के गीतकार को अपने पंख फैलाने के लिए पूरा गगन मिल गया । हिन्दी की लोकप्रिय कवयित्री एवं लेखिका के रूप में अपनी प्रसिद्धि के बल पर वे आकाशवाणी,लखनऊ से जुड़ गयीं ,जहाँ उन्होंने साहित्य -संगीत के विस्तार के साथ-साथ बाल साहित्य के क्षेत्र में भी महत्त्वपूर्ण काम किया। कवि-सम्मेलनों में मधुर कंठ से कविता पाठ करती थीं,इसलिए उनके नाम की धूम थी ।उन दिनों कवि सम्मेलन वाग्देवी के मंदिर हुआ करते थे ,इसलिए सुमित्राजी का मंचों पर जाना गौरव की बात समझी गयी । उनके जीवन के उत्तरार्ध में मुझे भी उनके साथ कई बार आकाशवाणी के कवि सम्मेलनों में काव्यपाठ करने का सौभाग्य मिला। अत्यंत सहज-सरल और गुणज्ञ महिला थीं वह। मिलने पर बहुत स्नेह देती थीं। उनकी प्यार भरी स्नेहिल चुटकियाँ आज भी याद आती हैं ,तो मन कहीं अतीत में खो जाता है। साहित्य-सृजन की दृष्टि से इनका परिवार आदर्श परिवार था । पुत्री कीर्ति चौधरी ने (मूल नाम कीर्तिबाला सिन्हा) 'तार सप्तक' की प्रसिद्ध कवियित्री के रूप में अपनी पहचान बनाई। साथ ही ,'पाँच जोड़ बाँसुरी ' की कवयित्री के रूप में हिंदी के नवगीतकारों में भी प्रथम पंक्ति में बैठी। पुत्र अजित कुमार और पुत्रवधू स्नेहमयी चौधरी दोनों प्रतिष्ठित कवि थे। यहाँ तक कि दामाद ओंकारनाथ श्रीवास्तव भी न केवल बीबीसी के यशस्वी अधिकारी थे,अपितु श्रेष्ठ कथाकार भी । अजित कुमार जी ने बच्चन रचनावली ( 9 खण्ड ) का संपादन किया ही ,सुमित्रा कुमारी सिन्हा रचनावली ,कीर्ति चौधरी रचनावली और ओंकारनाथ जी के कथा संग्रह का संपादन भी किया। सुमित्रा जी के कविता संकलन विहाग (1940), आशापर्व (1942), बोलों के देवता ( 1954),कहानी संग्रह - अचल सुहाग (1939) वर्ष गाँठ (1942) के अलावा अन्य रचनाएँ - पंथिनी, प्रसारिका, वैज्ञानिक बोधमाला, कथा कुंज, आँगन के फूल, फूलों के गहने, आंचल के फूल, दादी का मटका चर्चित रही हैं। उनका यह गीत तत्कालीन परिवेश, शब्दावली , गीत के कलेवर में कथातत्व और गीत के शिल्प की दृष्टि से मननीय है। - बुद्धिनाथ मिश्र
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ओ दूर देश के वासी
चले जा रहे होगे तुम,ओ दूर देश के वासी।
चली रात भी, चले मेघ भी,चलने के अभ्यासी।
भरा असाढ़,घटाएँ काली नभ में लटकी होंगी;
चले जा रहे होगे तुमकुछ स्मृतियाँ अटकी होंगी।
छोड़ उसाँस बैठ गाड़ी में दूर निहारा होगा,
जबकि किसी अनजान दिशा ने तुम्हें पुकारा होगा,
हहराती गाड़ी के डिब्बे में बिजली के नीचे,
खोल पृष्ठ पोथी के तुमने होंगे निज दृग मींचे।
सर सर सर पुरवैया लहकी होगी सुधि मंडराई,
तभी बादलों ने छींटे दे होगी तपन बढ़ाई।
खिड़की में मुँह डाल सोचते होगे तुम यों उन्मन
कितनी तृष्णा से पूरित हैमानव का नन्हा मन।í
गाड़ी के हलके हिलकोरों से तन डूबा होगा।
भरी भीड़ में एकाकीपन से मन ऊबा होगा।
धमक उठे होंगे सहसा मेघों के डमरू काले।
विकल मरोर उठे होंगे तब घने भाव मतवाले।
दामिनि झमक उठी होगी अम्बर की श्याम-अटा पर;
युगल नयन भी नीरव बरसे होंगे उसी घटा भर।
रैन बसेरा पल भर का फिर चल ही दिए, बटोही !
भोली कलियों को काँटों की ओट किए, निर्मोही !
चलो, न रोकूँ; साथ तुम्हारे विकल-भावना मेरी।
चलो, न टोकूँ; साथ तुम्हारे विजय-कामना मेरी ।
चलते रहो सचेत बटोही,कभी मिलेगी मंजिल ।
मिल लेंगे हम ज्यों झोंके से लहराती मलयानिल ।
बदले जीवन-चक्र दिशा गति मुक्त मार्ग-अनुगामी।
किंतु खिलाये रखना तब तक सपने कुछ आगामी ।
मधुर नेह रस के सागर से रीत न जावें आँखें,
घिर न रहें पथ की सीमाओं में आशा की पाँखें।
चले जा रहे होगे तुम,ओ दूर देश के वासी ।
चली रात भी,चले मेघ भी,चलने के अभ्यासी ।
@सुमित्रा कुमारी सिन्हा
लेखक--बुद्धिनाथ मिश्र जी