भो +सद् + इके = मुहल्ला अस्सी


बनारस के घाटों को छूकर आज भी गंगा बहती है भले अनमने मन से बहती हो। अरूणेश की पीली किरणें आज भी इन घाटों का चरण चूमकर अपने दिन की शुरूआत करती है। गंगा की मन्द मन्द लहरों पर हिचकोले खाती नावें और हरहर महादेव की अमृत ध्वनि सर्व़त्र देखने सुनने को मिल जाती है। और उसी तन्मयता के साथ ही साथ एक और वाक्य जिसें आधुनिक दुनियां गाली समझती है। यह वाक्य यहाॅ के लोग किसी प्रसंग या आत्मीय के सम्बोघन में देते है। अपनी मस्ती में मस्त रहने वाले शहर ए बनारस के लोग आत्मीयता जाहिर करने के लिए शब्दों के आडम्बर को फालतु समझते है। दरअसल यह भो सद् ईके शब्द गाली है ही नही। चन्द्रगुप्त के समय संस्कृतज्ञ कुशल क्षेम पुछने के लिए इसका प्रयोग करते थे यही मुगल काल में अप्भ्रंश होकर गााली में रूढ हो गया। ऐसा विक्पिडीया पर उल्लिखित है।
              कबीर की फटकार,  बाबा किनाराम का औघढपन जिस शहर के जन जन का मिजाज हो वहाॅ की मस्ती ही उसके जीवन्त होने का प्रतीक है। फिल्म वाले अपनी दुकान चलाने के लिए इसके पहले भी डीकेभोस का प्रयोग कर चुके है। तमाम रन्जो गम को बनारस हमेशा से दख्खिन लगाते आया है उसी बनारस के दख्ख्नि में बसा है मुहल्ला अस्सी। जहाॅ विश्व प्रसिद्ध पप्पु की चाय की दुकान बनारसी संस्कृति की संसद है। जहाॅ विन्दास गप्प मारने वाला हर चहेडी स्वयंभू सांसद। जहाॅ पुरा विश्व इनके उसपर रहता है। इसी सदन के जीवन्त पात्रों को लेकर काशीनाथ सिंह का प्रसिद्ध उपन्यास है ’’काशी का अस्सी’’ जिस पर मुहल्ला अस्सी फिल्म का निर्माण हुआ है। दुनिया जिसे गाली मानती है उसका पुरे उपन्यास में मात्र तीरपन जगह प्रयोग है। मगर शिव जी का गाली देना कहीं नही है।
                 आप भी सोच रहे होंगे गुरू कहाॅ ज्ञान बघारने लगे। तो साहब ये फिल्म वाले है ये कुछ भी कर सकते है । जब ये चने की खेत में जोरा जोरी करा सकते है , जिगर से बीडी धरा सकते है, शीला को जवान करके मुन्नी को बदनाम कर सकते है। तो शंकर जी को बहुरूपिया या बहुरूपिये को शंकर बनाना इनके लिये कौन सी बडी बात है। काशी को समझने के लिए काशी का कबीर होना पडेगा, फकीर होना पडेगाा। यहाॅ नबाब गंज में नबाब नही मिलते, नई सडक की सडक नई नही है। शिवाला में मुस्लमान रहते। पान्डेय हवेली में कोई हवेली पान्डेय जी की नही है। मरण जहाॅ का मंगल है। यह वह आनन्द वन है जिस के महाश्मशान का उद्घाटन बाबा विश्वनाथ चिताभष्म  के लेपन से करते है और ट्रामा सेन्टर का उद्घाटन प्रधानमन्त्री चाह कर भी नही कर पाते। महानायक अमिताभ बच्चन के अकल का ताला भी बनारस का पान खाने के बाद खुलता है। जिसके पिता हमेशा फिल्मों में खून पीते हो मम्मी आरो का पानी पीती हो। उसका बेटा भले गदर मचा के हैन्ड पाईप उखाड ले, लेकिन हमारी धार्मिक भावनाओं से खिलवाड करके काशी की गरीमामयी  संस्कृति का कुछ भी नही उखाड सकता।




              

9 टिप्‍पणियां:

  1. डॉ. अनिल चौबे जी
    आपके लिखे चलन्त चर्चा का हर शब्द सत्य है ।दुनियां मे वैसे तो अनेकों शहर है कुछ सलीके से तो कुछ बेतरतीब भी बसे होंगे परन्तु वाराणसी की बात ही निराली है । यह भी उतना ही सत्य है कि अपनापन जताने के लिए यहां के भाषा के शब्द अन्यत्र नही मिलेंगे और उसके स्थान पर प्रयुक्त दूसरे शब्दों मे कृत्रिमता झलकती है। यद्यपि श्री काशीनाथ सिंह लिखित उपन्यास मे इनका प्रयोग जिनकी निश्चित संख्या भी आपने दे दी है पर फिल्म जगत के लोग हर चीज को अपने ही चश्मे से देखते हैं परिणामस्वरूप वह यहां अभद्र हो जाता है ।
    बहरहाल आपने शब्दों के पृष्ठभूमि को लेकर अपना मत प्रस्तुत किया है वह नितांत ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत् किया है ।हम आशा करते हैं कि आप अपने नित नूतन अन्वेषण मे संलग्न प्रतिभा से हमारे ज्ञान का संवर्द्धन करते रहेंगे ।

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  2. आदरणीय
    नंदकिशोर तिवारी जी
    सादर नमन
    आपकी सारगर्भित टिप्पणी से हमें उर्जा मिलती है ! और अत्यधिक उत्साह से लेखन होता है ! आपका कृतग्य हूँ !
    प्रणाम

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  4. श्रीमान् चौबे जी,
    विक्कीपेडिया मेरे लिए कभी भी विश्वस्त स्रोत नहीं रहा है लेकिन जिस कुशलता से आपने बनारसीपन और उसके सास्कृतिक शब्द की व्याख्या की है दिल को गुदगुदा भी रहा है और स्वीकार करने का मन भी हो रहा है।

    आधुनिक हिंदी सिनेमा अपने पतन के चरम पर है यह बहुमान्य सत्य है परन्तु किसी का कोई जतन बनारसी मस्ती का बाल बाँका नहीं कर सकता यह भी एक शास्वत सत्य है।
    डाक्टर साहब आप बस लिखते रहें........
    आपका पोस्ट पढ़कर परम संतोष का अनुभव हो रहा है।

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  5. श्रद्धेय सुनील जी
    समीक्षात्मक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार

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  6. डाॅ अनिल चौबे महोदय -

    आप के इस अनुपमेय लेख का वाचन कर मन अतिशय प्रफुल्लित हो गया । काशी की अविरल संस्कृति का विचलन किसी भी दशा में स्वीकार्य नहीं होगा । एतादृश ही ईश पुर के गौरव वृद्धि में अपनी लेखनी को धन्य करते रहें ।

    सादर साधुवाद !

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  7. भाई संजय जी
    आप ने जो अभिनव टिप्पणी कि है
    तदर्थ आभार !
    हम जैसे को उर्जान्वित करने के लिए कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ

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